हृदयनारायण दीक्षित
भाषा अभिव्यक्ति का मुख्य उपकरण है। भाषा के माध्यम से समाज बनते हैं। परस्पर संवाद होते हैं। भारत में अनेक भाषाएं हैं। कोई भी भाषा किसी दूसरी भाषा से छोटी या बड़ी नहीं होती। भारतीय भाषाओं में परस्पर प्रतिद्वंद्विता भी नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं ने सम्यक विचारोपरांत हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। संविधान सभा में राजभाषा का प्रस्ताव एम. जी. आयंगर ने रखा था। उन्होंने कहा था, ‘यद्यपि संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिए हमने हिंदी को अभिज्ञात किया है, लेकिन वह समुन्नत भाषा नहीं है।’ १५ वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने और आवश्यकतानुसार आगे भी अंग्रेजी का उपयोग जारी रखने के प्रस्ताव पर मतदान हुआ। नजीरुद्दीन अहमद ने अंग्रेजी का पक्ष लिया, लेकिन आर वी धुलेकर ने हिंदी को राष्ट्र भाषा बताया। इस पर कई सदस्यों ने आपत्ति की। धुलेकर ने कहा, ‘मैं कहता हूं कि वह राजभाषा है। हिंदी के राजभाषा हो जाने के बाद संस्कृत विश्व भाषा बनेगी। अंग्रेजी के नाम १५ वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्र का हित साधन नहीं होगा।’
बहस में सेठ गोविंद दास ने हिंदी की पक्षधरता की और कहा, ‘इस देश में हजारों वर्ष से एक संस्कृति है। यहां एक भाषा और एक लिपि होनी चाहिए।’ अलगू राय शास्त्री ने कहा, ‘हिंदी की होड़ अंग्रेजी से है। बांग्ला, तेलगु, तमिल, कन्नड़ से नहीं। अब यहां भारतीय भाषा ही होनी चाहिए। हिंदी को भी यह महत्व प्राप्त हो सकता है। अंग्रेजी हमारे किसी भी प्रांत की भाषा नहीं है।’ बहस तीन दिन तक चली। पं. नेहरू ने कहा, ‘अंग्रेजी कितनी ही अच्छी हो, हम इसे सहन नहीं कर सकते।’ नेहरू के लिए अंग्रेजी बर्दाश्त के बाहर थी तो भी नेहरू जी ने अंग्रेजी को बनाए रखने की पैरोकारी की और १४ सितंबर १९४९ के दिन हिंदी राजभाषा बन गई। १५ साल के लिए अंग्रेजी का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया गया।
संविधान (अनुच्छेद ३५१) में हिंदी के विकास के लिए विशेष निदेश दर्ज हुए। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि संघ का कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे। उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी या आठवीं अनुसूची में निर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त, रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। संविधान निर्माताओं ने राजभाषा की समृद्धि के लिए केंद्र को यह कर्तव्य सौंपा है। भाषा महत्वपूर्ण उपकरण है। यह संस्कृति, सभ्यता, ज्ञान-विज्ञान और दर्शन जैसे सभी अनुशासनों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। हिंदी के पास भारतीय दर्शन, विज्ञान सहित ज्ञान परंपरा के सभी अनुशासनों का संस्कृत का उत्तराधिकार है। संविधान निर्माताओं ने उचित ही हिंदी को राजभाषा बनाया।
भारतीय राष्ट्र का गठन संस्कृति से हुआ है। भाषाएं सांस्कृतिक प्रवाह का महत्वपूर्ण उपकरण होती हैं। शाह ने पिछले वर्ष कहा था, ‘अंग्रेजी के आकर्षण के कारण हम अपनी प्रतिभा का ५ प्रतिशत ही उपयोग कर पा रहे हैं। अंग्रेजी और अंग्रेजियत के मोहपाश से मुक्त होना समय का आवाह्न है।’ स्वाधीनता संग्राम की भाषा हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाएं ही थीं, लेकिन अंग्रेजी का आकर्षण आधुनिक होने का साधन था। गांधी जी ने दुख व्यक्त किया था कि अंग्रेजी ने हिंदुस्थानी राजनीतिज्ञों के मन में घर कर लिया है। गांधी जी ने १९१९ में कहा था कि मैं टूटी-फूटी हिंदी बोलता हूं। अंग्रेजी बोलने में मुझे पाप लगता है। १९१७ में राष्ट्र भाषा को लेकर बहस थी। गांधी जी ने राष्ट्र भाषा के लक्षण बताए थे। यह भाषा सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों के लिए आसान होनी चाहिए। उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक व राजनीतिक कामकाज सरल होना चाहिए। ऐसी भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों। भाषा पर विचार करते समय क्षणिक या अस्थाई परिस्थिति पर जोर न दिया जाए। अंग्रेजी में यह लक्षण नहीं हैं। हिंदी में यह सारे लक्षण हैं। गांधी हिंदी के पक्षधर थे। देश के राष्ट्रवादी नेता भी हिंदी के पैरोकार थे।
दरअसल, भाषा ही सामाजिक संगठन का मुख्य उपकरण होती है। भाषा का उद्देश्य दैनिक जीवन की कार्रवाई पूरा करना ही नहीं होता। आदर्श मनुष्य गढ़ने के लिए भी भाषा ही सशक्त उपकरण होती है। राष्ट्रजीवन के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भाषा में आदर्श संस्कार भी होने चाहिए। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘सहज भाषा का प्रश्न’ शीर्षक से लिखा है कि निस्संदेह मैं सहज भाषा का पक्षपाती हूं, परंतु सहज भाषा मैं उसे समझता हूं, जो सहज ही मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु-सामान्य धरातल से ऊंचा उठा सके। सहज भाषा का अर्थ है-सहज ही महान बना देने वाली भाषा। वह भाषा, जो मनुष्य को उसकी सामाजिक दुर्गति, दरिद्रता, अंध-संस्कार और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, किसी काम की नहीं है, भले ही उसमें प्रयुक्त शब्द बाजार में विचरने वाले अत्यंत निम्न स्तर के लोगों के मुख से संग्रह किए गए हों। अनायास लब्ध भाषा को मैं सहज भाषा नहीं कहता। तपस्या, त्याग और आत्म-बलिदान के द्वारा सीखी हुई भाषा सहज भाषा है। बाजार की भाषा को मोटे प्रयोजनों की भाषा को मैं छोटी नहीं कहता, परंतु मनुष्य को उन्नत बनाने के लिए जो भाषा प्रयोग की जाएगी वह उससे भिन्न होगी।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)