द्विजेंद्र तिवारी मुंबई
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति भुइयां ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जमानत देते हुए बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की तुलना बहुत पहले से ‘पिंजरे में बंद तोते’ से होती रही है। लंबे समय से चली आ रही इस आलोचना से स्पष्ट है कि एजेंसी को अक्सर राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। तोते वाली उपमा के अलावा न्यायमूर्ति ने जूलियस सीजर और उनकी पत्नी पोम्पिया की प्रसिद्ध कहानी का उल्लेख किया, जिसके कारण ‘सीजर की पत्नी को संदेह से परे होना चाहिए’ कहावत एक बार फिर चर्चा में है।
किस्सा यह है कि ईसा पूर्व ६२ में पब्लियस क्लोडियस पुलचर नामक एक युवक महिला के वेश में रोमन साम्राज्य के शक्तिशाली सम्राट जूलियस सीजर की पत्नी पोम्पिया द्वारा केवल महिलाओं के लिए आयोजित बोना डीया के उत्सव में घुस गया, ताकि उससे अपने प्रेम को व्यक्त कर सके। पब्लियस को गिरफ्तार कर लिया गया और उस पर मुकदमा चलाया गया, लेकिन सीजर ने उसके खिलाफ कोई बयान नहीं दिया और वह निर्दोष मुक्त हो गया। इसके उलट सीजर ने पोम्पिया को ही तलाक दे दिया। जब उनसे ऐसा करने की वजह पूछी गई तो उन्होंने कहा कि ‘मेरी पत्नी पर संदेह भी नहीं किया जाना चाहिए’ और पोम्पिया पर अवैध व्यवहार का संदेह व्यक्त किया गया था।
‘सीजर की पत्नी को संदेह से परे होना चाहिए’ कहावत का इस्तेमाल दुनिया भर के कई राजनेताओं और सार्वजनिक हस्तियों द्वारा किया गया है, खासकर उन स्थितियों के संदर्भ में जिनमें उच्च नैतिक मानकों या राजनीतिक परिपक्वता की आवश्यकता होती है।
महात्मा गांधी ने सार्वजनिक जीवन में पूर्ण नैतिक शुद्धता के महत्व को समझाने के लिए इस कहावत का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि सार्वजनिक पद पर बैठे लोगों को न केवल निंदा से परे होना चाहिए बल्कि जनता द्वारा भी उनके बारे में ऐसा ही माना जाना चाहिए। इसी तरह २३ अप्रैल १९३१ के ‘यंग इंडिया’ के अंक में उन्होंने कहा, ‘धर्मांतरण के तरीके सीजर की पत्नी की तरह संदेह से परे होने चाहिए।’
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शासन में पारदर्शिता और शुचिता की आवश्यकता को संबोधित करने के लिए इस कहावत का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि मंत्रियों और लोक सेवकों को अपने कार्यों और व्यवहार में हमेशा संदेह से परे रहना चाहिए, विशेषकर भारत की स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में, जब एक मजबूत लोकतांत्रिक परंपरा का निर्माण सर्वोपरि था।
इस कहावत का चर्चित इस्तेमाल तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने २०१० में किया था। टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में लोक लेखा समिति (पीएसी) के समक्ष पेश होने की पेशकश करते हुए उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री को ‘सीजर की पत्नी की तरह, संदेह से परे होना चाहिए’। उन्होंने कहा था, ‘मैं ईमानदारी से मानता हूं कि सीजर की पत्नी की तरह, प्रधानमंत्री को संदेह से परे होना चाहिए और यही कारण है कि मैं पीएसी के समक्ष पेश होने के लिए तैयार हूं, भले ही इसका कोई पूर्ववर्ती उदाहरण न हो।’
न्यायमूर्ति भुइयां ने इस उदाहरण का इस्तेमाल सीबीआई जैसी जांच एजेंसी पर इस बात को रेखांकित करने के लिए किया कि उसे किसी भी तरह के संदेह से परे रहना चाहिए, जैसा कि सीजर का मानना था कि उसकी पत्नी को होना चाहिए। इस संदर्भ में न्यायाधीश ने कहा कि सीबीआई को बिना किसी संदेह या राजनीतिक प्रभाव के काम करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह जनता का विश्वास बनाए रखे।
यह उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीबीआई जैसी संस्था को न केवल निष्पक्ष रूप से काम करना चाहिए, बल्कि न्यायिक और जांच प्रक्रिया में विश्वास बनाए रखने के लिए ऐसा दिखना भी चाहिए। किसी भी तरह का बाहरी हस्तक्षेप या इसकी निष्पक्षता पर संदेह एजेंसी की विश्वसनीयता को कम कर सकता है, ठीक उसी तरह जैसे सीजर अपनी पत्नी के बारे में किसी भी तरह का संदेह बर्दाश्त नहीं कर सकता था, भले ही उसके खिलाफ कोई ठोस सबूत न हो। न्यायमूर्ति के इस अवलोकन से यह भी अधोरेखित होता है कि अरविंद केजरीवाल के मामले में सीबीआई ने उचित मार्ग नहीं अपनाया।
न्यायाधीश का यह अवलोकन नया नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाले की सुनवाई के दौरान २०१३ में ‘पिंजरे में बंद तोते’ के रूप में काम करने के लिए सीबीआई की इसी तरह आलोचना की थी, जिसका अर्थ था कि यह अक्सर एक स्वायत्त निकाय के बजाय राजनीतिक प्रभाव में काम करती है। यह आलोचना भारत में जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता के बड़े मुद्दे की ओर इशारा करती है, जिसके साथ समझौता किए जाने पर अन्यायपूर्ण परिणाम सामने आ सकते हैं और लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हो सकती हैं।
पिंजरे में बंद तोते का रूपक इस बात की याद दिलाता है कि वैâसे एजेंसी को सत्तारूढ़ सरकार द्वारा नियंत्रित या हेरफेर किया जा रहा है। न्यायमूर्ति द्वारा इसका उल्लेख एक बार फिर एजेंसी को ऐसे प्रतिबंधों से मुक्त करने की अनसुलझी चिंता को उजागर करता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह राजनीतिक आकाओं के बजाय न्याय की सेवा करे।
सीबीआई को संदेह से परे रहने की आवश्यकता के बारे में न्यायमूर्ति की टिप्पणी एक नसीहत है कि सार्वजनिक संस्थानों को आचरण के उच्चतम मानकों का पालन करना चाहिए। न्यायालयों में एजेंसी द्वारा दायर किए गए १२,००० से अधिक मामले लंबित हैं। न्याय की इतनी धीमी प्रक्रिया से सवाल उठ रहे हैं। इससे इस संदेह को बल मिलता है कि बिना ठोस सबूतों के मामले दायर किए गए और अदालतों को इन आरोपों पर भरोसा करना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में तारीख पे तारीख आती है और मामलों का निपटारा नहीं हो पाता। केंद्र सरकार के अधीन एजेंसियों के कामकाज के स्तर में गिरावट पिछले दस वर्षों में कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रही है। ऐसे में सीबीआई को ‘सीजर की पत्नी की तरह संदेह से परे’ होने के लिए कार्यप्रणाली में व्यापक सुधार करना होगा और न्याय के प्रति अटूट समर्पण की भावना रखनी होगी।
(लेखक कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं।)