धर्म और आस्था के नाम पर हो रहा पाखंड आज हमारे समाज के समक्ष एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा है। मंदिरों, तीर्थ स्थलों, और तथाकथित धर्मगुरुओं ने लोगों की भावनाओं का दोहन कर, उन्हें अंधविश्वास और दिखावे की दुनिया में फंसा दिया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज आस्था का व्यापार हो रहा है, जिसमें श्रद्धालुओं की भक्ति का सौदा किया जा रहा है। मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाना और पवित्र प्रसाद को खरीदना अब आध्यात्मिकता का मापदंड नहीं रहा, बल्कि एक धंधा बन गया है, जहां ईश्वर के नाम पर छल-कपट और धोखाधड़ी की जा रही है।
जब प्रतिष्ठित मंदिरों का प्रसाद तक मिलावट से अछूता नहीं रहा, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म के ठेकेदारों ने आस्था को केवल एक व्यापारिक वस्तु में तब्दील कर दिया है। तिरुपति बालाजी मंदिर के प्रसाद में फिश ऑयल मिलने की घटना इसी पाखंड का एक जीवंत उदाहरण है। इसे देखकर यह सवाल उठता है कि क्या हम ईश्वर को खोजने के नाम पर खुद को धोखे में रख रहे हैं? हमारी आस्था कब तक ऐसे पाखंडी व्यवस्थाओं का शिकार बनती रहेगी?
वास्तविक ईश्वर और सच्ची आस्था मंदिरों और मूर्तियों में नहीं, बल्कि हमारे अपने भीतर होती है। जब तक हम इस सच्चाई को नहीं समझेंगे, तब तक हम उन व्यापारियों के जाल में फंसे रहेंगे, जो हमारी भावनाओं को मुनाफे में बदलने का काम कर रहे हैं। समय आ गया है कि हम जागरूक बनें और आस्था के नाम पर हो रहे इस पाखंड का पर्दाफाश करें। अपने भीतर के ईश्वर को पहचानें और धर्म के नाम पर हो रहे आडंबर को नकारें, क्योंकि असली भक्ति आडंबर में नहीं, बल्कि सच्चाई में है।