– डॉ. सी पी राय
पिछले दिनों भारत सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक देश एक चुनाव की संभावना पर विचार करने, उसकी संभावनाएं देखने और उसके लिए सुझाव देने को एक समिति का गठन किया। समिति के गठन के समय ही कुछ विवाद उठ खड़े हुए। पूर्व राष्ट्रपति का किसी समिति का अध्यक्ष बनना लोगों को उचित नहीं लगा तो समिति के कुछ सदस्यों पर भी लोगों को एतराज था। कांग्रेस के लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी ने समिति में रहने से इनकार कर दिया तो राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता को समिति में नहीं रखने पर भी सवाल उठा। १९१ दिन काम करने के बाद इस समिति ने अपनी १८,००० पन्नों से ज्यादा की रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी और फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल इस रिपोर्ट को स्वीकार करने की घोषणा कर दी। समिति ने लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव २०२९ में एक साथ करवाने की सिफारिश किया है तथा उसके लिए सुझाव दिया है की जिन राज्यों में २०२९ से पहले चुनाव होना हो, उनका कार्यकाल २०२९ तक बढ़ा दिया जाए तथा जिन राज्यों में २०२९ के बाद चुनाव होना हो उनका कार्यकाल घटा दिया जाए। साथ ही अपनी ही अनुशंसा में खुद एक देश एक चुनाव की भावना के विपरीत राय दिया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद १०० दिन में स्थानीय निकायों का चुनाव करा लिया जाए। सवाल यहीं उठ खड़ा हुआ कि फिर इसे एक देश एक चुनाव वैâसे माना जाए। रिपोर्ट को मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकार किए जाने के साथ ही एक देश एक चुनाव पर राजनैतिक और संवैधानिक बहस भी शुरू हो गई तथा इसके अच्छे-बुरे और व्यावहारिक या अव्यावहारिक होने पर बहस शुरू हो गई है।
आजादी के बाद १९५२, १९५७, १९६२ और १९६७ में पहले चार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। बाद में कई मौकों पर लोकसभा समय से पहले भंग होने और कई मौकों पर विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण लोकसभा और विभिन्न राज्य विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे। एक साथ चुनाव कराने का विचार अतीत में भारत के चुनाव आयोग और विधि आयोग द्वारा १९८३ में रखा गया था पर इंदिरा जी ने उस पर ध्यान देना उचित नहीं समझा। आजादी के बाद केवल सरकार भंग होना ही कारण नहीं था, बल्कि भाषा के आधार पर और अन्य कारणों से राज्यों का बटवारा हो रहा था, नए राज्य बन रहे थे इसलिए भी अलग- अलग समय पर चुनाव होने लगे थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव की बात करना शुरू किया। इसके पक्ष में तर्क दिया गया की एक साथ चुनाव कराने पर खर्च कम हो जाएगा और अनुमान लगाया गया कि करीब ४,००० करोड़ रुपए बच जाएंगे। इसके जवाब में विरोध करने वालों का कहना है कि एक तो ये पैसा जनता के टैक्स से आता है और भारत के चुनाव का खर्च दुनिया में सबसे कम है दूसरा राजनीतिक दल जब ५०/६० हजार करोड़ रुपए खर्च करते हैं, उसका क्या होगा तथा सरकारें जो तमाम फिजूलखर्ची करती है, वो बचाने का प्रयास क्यों नहीं करती हैं। एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि सारे चुनाव यदि एक साथ कराए जाएंगे तो तीन से चार गुना वोटिंग मशीन तथा वीवीपैट मशीन की जरूरत पड़ेगी, जिनको बनाने में भी बहुत समय लगेगा तथा काफी पैसा खर्च होगा। दूसरी तरह के विद्वानों का कहना है कि नेता लोग चुनाव के बाद ५ साल तक तो जनता का हाल पूछते ही नहीं हैं। बार-बार चुनाव होने पर उनको आना पड़ता है और वादे याद रखने पड़ते हैं तथा चुनाव के चक्कर में कुछ वादे पूरे भी करने पड़ते हैं। एक सोच ये भी है कि चुनाव देश की अर्थव्यवस्था को गति देता है, नेताओं तथा दलों का पैसा बाजार में चलन में आता है तथा हर तरह का काम करने वालों की आमदनी होती है।
एक तर्क ये दिया जाता है कि बार-बार चुनाव से विकास कार्य रुक जाता है और बार-बार आचार संहिता लगाने से नए निर्णय नहीं हो पाते हैं तथा विकास कार्य रुक जाता है। विद्वान लोग इसका जवाब देते हैं कि पहले तो पहले से चल रहे विकास कार्य चलते रहते हैं उन पर कोई रोक नहीं होती है हां, नए निर्णय लेने पर रोक होती है तथा चुनाव से जुड़े अधिकारियों के ट्रांसफर पर रोक होती है, लेकिन वो भी चुनाव आयोग की इजाजत से हो जाते हैं और एक सवाल ये उठता है कि जो पैâसले चार साल १० महीने में नहीं लिए गए, उनके लिए सरकार के अंतिम दो-तीन महीने का इंतजार ही क्यों किया जा रहा था। समिति ने सुझाव दिया है कि यदि किसी कारण से कोई सरकार गिर जाती है और लोकसभा या विधानसभा भंग हो जाती है तो उसका चुनाव अगले पांच साल के लिए नही, बल्कि सिर्फ बचे कार्यकाल के लिए ही कराया जाए तो इससे तो ५ साल सरकार की अवधारणा भी खत्म होगी और थोड़े समय के लिए होने वाले चुनाव में भी पूरा पैसा खर्च होगा तथा मशीनरी लगेगी, तब भी उद्देश्य बेकार हो जाएगा।
विरोध करने वालों का कहना है कि भारत के संविधान में एक संघीय ढांचा स्वीकार किया गया है पर यदि इस समिति की रिपोर्ट को स्वीकार किया जाता है तो संघीय ढांचा भी टूटता है तथा संिवधान के मूल ढांचे पर भी आक्रमण होता है। ये रिपोर्ट लागू करने के लिए कई संविधान संशोधन करने होंगे, जो पहले तो वर्तमान सरकार की लोकसभा और राज्यसभा में संख्या को देखते हुए असंभव है। दूसरा यदि संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन के लिए देखा जाए तो आधे राज्यों की सहमति भी चाहिए और यदि कोई ऐसा रास्ता निकालने का प्रयास होता है कि राज्यों के बिना केंद्र ही विधानसभाओं के बारे में पैâसला कर ले तो वो संविधान के मूल ढांचे पर हमला होगा और फिर वो मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय के सामने जरूर जाएगा। इसी तरह से स्थानीय निकायों का चुनाव पूरी तरह राज्य के क्षेत्र में आता है उसका भी अतिक्रमण होगा।
सबसे बड़ा सवाल तो अभी उठ खड़ा हुआ है कि अभी कश्मीर का १० साल बाद चुनाव करवाया जा रहा है और वो भी उसे बिना पूर्ण राज्य का दर्जा दिए हुए। आलोचक कह रहे हैं कि किसी केंद्रशासित क्षेत्र को राज्य बनते तो देखा गया है लोकतंत्र के लिए पर किसी राज्य को केंद्रशासित क्षेत्र बनते पहली बार देखा गया है और उसमें भी लद्दाख का लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिया गया है। हरियाणा का चुनाव घोषित कर दिया गया है पर अगले महीने ही होने वाला महाराष्ट्र तथा झारखंड का चुनाव साथ नहीं करवाया गया है। जो सरकार चार प्रदेश का चुनाव साथ नहीं करवा सकती तो वैâसे विश्वास किया जाए कि वो एक साथ चुनाव के लिए गंभीर है और चुनाव आयोग ने जो तर्क दिया है की मौसम तथा महाराष्ट्र के त्योहार के कारण साथ चुनाव नहीं करवाया गया तो मौसम तो भारत के अलग-अलग क्षेत्र में हमेशा ही अलग रहेगा और त्योहार भी अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग समय पर होते ही रहेंगे।
एक बड़ा आरोप ये है कि एक देश एक चुनाव सत्ता का केंद्रीयकरण करने को है, जिसमें जनता राष्ट्रीय स्तर के नेताओं और दलों में ही चुनाव करेगी और क्षेत्रीय दल घाटे में रहेंगे तथा अमेरिका की राष्ट्रपति प्रणाली की तरह हो जाएगा कि राष्ट्रीय स्तर पर जिन दो नेताओं में मुकाबला होगा, देश के मतदाता का ध्रुवीकरण उन्ही दो में हो जाएगा। एक अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि एक देश एक चुनाव में जीतती दिखने वाली पार्टी तथा नेता के ही जीत जाने के ७० प्रतिशत चांस होंगे और ऐसे में तानाशाही आ जाने की संभावना भी बनी रहेगी। जो भी है अब समिति की रिपोर्ट को सरकार ने स्वीकार कर लिया है। आगे सत्ता अपने दांव को आजमाएगी और एक देश एक चुनाव करवाने की कोशिश करेगी और इसका विरोध करने वाले अपने तर्कों के साथ इस राजनैतिक और संवैधानिक बहस के मैदान में होंगे। इंतजार करना होगा सभी को कि सत्ता का असल इरादा क्या है केवल शगूफा या इसमें भी गंभीरता है और संवैधानिक सवालों तथा शंकाओं का समाधान वो क्या तथा किस तरह से सामने लाती है और इससे सशंकित लोग सड़क से संसद तक, जनता की अदालत से सर्वोच्च न्यायालय तक किन तर्कों और हथियारों से मुकाबला करते हैं।
(राजनीतिक विचारक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)