मुख्यपृष्ठस्तंभचुनावी हिंसा में आम आदमी की बलि क्यों?

चुनावी हिंसा में आम आदमी की बलि क्यों?

योगेश कुमार सोनी

एक बार फिर यह तय हो गया कि हमारे देश में बिना हिंसा के चुनाव हो ही नही पाते। जब-जब चुनाव हुए हैं तभी प्रशासन को हिंसा का सामना करना पडा है। बीते शनिवार हरियाणा विधानसभा चुनाव के मतदान के दौरान हरियाणा में 30 से अधिक स्थानों पर विवाद और झड़प की घटनाएं हुईं। नूंह में तीन जगह बवाल हुआ। कांग्रेस प्रत्याशी आफताब अहमद और इनेलो-बसपा प्रत्याशी जाकिर हुसैन के समर्थकों के बीच पथराव तक हो गया। हम देश के बाहरी व सीमाओं से सटे आतंक व सुरक्षा की बात करते हैं लेकिन अभी तक हम देश की आंतरिक स्थिति को सुधारने या नियंत्रित करने में पूर्ण रूप से विफल नजर आते हैं। सुरक्षा एजेंसियों की तमाम टुकडियों के बीच ऐसा होना सुरक्षा की पोल खोल देता है। कुछ राज्यों में हिंसा होना लगभग तय सा हो गया जिसमें पश्चिम बंगाल पहले स्थान आता है।यहां तो ऐसी घटनाएं अब आम दिनों में भी होने लगी लेकिन अब सवाल यही है कि इन राजनीतिक दलों के बीच वर्चस्व की लड़ाई इतनी क्यों बढ़ चुकी है? यह लोग चुनाव को युद्ध समझने लगे। हमारे देश में चुनावों में आरोप-प्रत्यारोप व अभद्र भाषा का प्रयोग तो आम हो चुका है लेकिन हिंसा से लोगों की जान जाने जा रही हैं जिसके आंकड़े चिंताजनक है। ऐसे घटनाक्रमों को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों को यह समझना होगा कि अपने स्वार्थ के लिए मानव जीवन की अप्राकृतिक हानि न हो चूंकि पिछले दशकभर में राजनीतिक हिंसा के चलते हजारों लोगों की जाने जा चुकी। ऐसे गंभीर मामले में उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप की जरूरत है जिससे राजनीतिक पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए के लिए किसी बलि न ले। साथ ही नेताओं व कार्यकर्ताओं को भी यह समझना चाहिए कि चुनाव को चुनाव के ही तरीके से लें उसे युद्ध न समझें। सभी दलों के उच्च नेताओं की लडाई केवल चुनावों व मीडिया के सामने तक ही होती है उसके बाद इनके आपसी रिश्ते बेहतर होते हैं। मौजूदा समय में इसका सबसे बड़ा सजीव उदाहरण पिछले कई सरकारों के बीच गठबंधन द्वारा देखने मिला। आम जनता व कार्यकर्ताओं को यह समझना चाहिए कि पार्टियां कभी भी आपस में गठबंधन कर लेती हैं। आम जनता व कार्यकर्ता इसे वर्चस्व की लडाई न समझें चूंकि आपसी रिश्तों से ही दुनिया चलती है अन्यथा कब कौन सा नेता अपने स्वार्थ के चलते किस पार्टी में शामिल हो जाए पता नही चलता। दरअसल अब हिंसा करना नेता अब शक्ति प्रदर्शन समझने लगे जिससे वह आम कार्यकर्ता की बलि ले लेते हैं। हमारे पास कई ऐसी पार्टियों के उदाहरण है वो जो दो पार्टी कभी एक न होने जैसी दिखती थी। जैसे कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन इसके अलावा बीजेपी-पीडीपी का गठबंधन। इससे यह तो तय हो जाता है कि राजनीति एक बड़ा व्यापार है और इसके लिए आक्रामक व उत्तेजित नही होना चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि हिंसा में मरने वालों में कोई बड़ा नेता नही होता बहुत ही गरीब व मध्यम वर्ग का आदमी होता है और वह केवल अपने आप को साबित करने व उपस्थिति दर्ज कराने के लिए अपनी बलि दे देता है।

वरिष्ठ पत्रकार

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