कागज, बांस, सुतली, फूलझड़ी, पटाखे से बने
नकली पुतले रावण, कुम्भकरण, मेघनाद के
जलते प्रतिवर्ष गांवों, नगरों के मैदान में
लगता मेला बहुत बड़ा, सब खुश हो हंसी ठिठोली कर रहे।
जब लगती चिंगारी, जलते पुतले, बजा तालियां खुश हो रहे।
अगले वर्ष और बड़ा रावण जलाएंगे,
पटाखे जलाएंगे, बड़ी भीड़ जुटाएंगे।
नहीं विचारते, क्यों ऐसा सदियों से हो रहा
जलता एक कागजी रावण, देहधारी रावण जन्म ले रहे।
अकेले या समूह में बच्चियों का शील हर रहे
गली, मोहल्ले, गांव, शहर सभी लंका बन गए।
मास चार की बेटी या दादी हो अस्सी बरस की
कर बलात्कार, गले उनके रेत रहे।
शर्म शील बचा न तुममें, न रिश्तों की मर्यादा
घर, बाहर, कार्य क्षेत्र कहीं भी नारी सुरक्षित नहीं।
पापों का घट फूटे जब बच सकता कोई नहीं
कुकर्मों का फल मिले आज या फिर कल सही।
बंद करो नकली पुतले जलाना, अपने आप संवारों
अपने अंदर के रावण को जलाओ
पाप, काम, दम्भ, अहंकार का त्याग करो।
नवरात्रि में मां के नौ रूपों की अराधना करने वालों
समाज में जीवित नारी का सम्मान करो।
नकली पुतला रावण का न फूंको
समाज को जीवित रावणों से मुक्त करो।
-बेला विरदी