फिल्म ‘लगान’ में आशुतोष गोवारिकर की टीम की तीसरी सहायक निर्देशिका किरण राव ने आगे चलकर आमिर खान के साथ ‘दिल्ली बेली’, ‘पीपली लाइव’, ‘तारे जमीन पर’ जैसी फिल्मों में सहायक निर्देशक के तौर पर काम किया। फिल्म ‘धोबी घाट’ से स्वतंत्र रूप से निर्देशिका बनीं किरण राव की फिल्म ‘लापता लेडीज’ को बॉक्स ऑफिस पर भले ही बहुत बड़ी कामयाबी नहीं मिली, लेकिन फिल्म को ऑस्कर में ऑफिशियल एंट्री मिल चुकी है। पेश है, किरण राव से पूजा सामंत की हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
फिल्म ‘लापता लेडीज’ को ऑस्कर में एंट्री मिलने की कितनी उम्मीद थी?
कोई भी मेकर जब फिल्म बनाता है तो उसके दिमाग में पुरस्कार के बारे में कोई उम्मीद नहीं होती। यह उम्मीद अवश्य होती है कि मेरी फिल्म दर्शकों को पसंद आ जाए। ‘लापता लेडीज’ की जितनी भी प्रोटागोनिस्ट हैं वे सारी महिलाएं हैं। इस फिल्म को देखने के बाद अनगिनत महिलाओं को ‘लापता लेडीज’ की कहानी अपनी कहानी महसूस हुई।
क्या फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है?
‘लापता लेडीज’ की लेखिका हैं स्नेहा देसाई। फिल्म की कहानी के मुताबिक नई नवेली दुल्हन ससुराल जाते समय ट्रेन में सफर के दौरान अपने पति से बिछड़ जाती है। अमूमन एक आम महिला का गुमशुदा होना किसी मुसीबत से कम नहीं होता, लेकिन कहानी की खूबसूरती यह है कि दुल्हन सही-सलामत अपने पति को मिल जाती है। यह सच्ची घटना तो नहीं, लेकिन लेडीज का लापता होना कॉमन है।
फिल्म को ऑस्कर में एंट्री मिलने पर आप वैâसा महसूस कर रही हैं?
फिल्म से जुड़े सभी लोग बेहद खुश है। मेरी राय में फिल्म पूरी तरह से भारतीय परिवेश में ढली है। यहां की भाषा, संस्कृति, महिलाओं के सोच-विचार सभी भावनाओं को नपे-तुले अंदाज में दिखाया गया है। महिलाओं का जीवन दर्शाते समय उसमें कहीं भी नेगेटिविटी नहीं है। फिल्म अगर आंखों में आंसू लाती है तो हंसाती भी है। जब फिल्म का सिलेक्शन होता है तो शायद इन मुद्दों पर गौर किया जाता होगा। हालांकि, ऑस्कर कमेटी के अपने नियम-कानून होते हैं।
आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ को भी ऑस्कर में एंट्री मिली थी। उनके उस अनुभव का आपको कितना फायदा होगा?
आमिर ने न सिर्फ इस महिला प्रधान फिल्म के निर्माण का बीड़ा उठाया, बल्कि इस फिल्म के प्रमोशन पर भी काफी मेहनत की। आमिर की ‘लगान’ को ऑस्कर के लिए नॉमिनेट होने का सौभाग्य मिला। आमिर ने इस फिल्म की ऑस्कर एंट्री के लिए बड़ी मशक्कत की। फिल्म के प्रमोशन के लिए बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ती है। यह काम तब थोड़ा आसान हो जाता है जब आप इसकी प्रोसेस जानते हैं। जिनकी फिल्में ऑस्कर के लिए नॉमिनेट होती हैं उन्हें अपनी फिल्म की मार्वेâटिंग के लिए कोशिशें करनी पड़ती हैं।
क्या आपकी अगली फिल्मों का फोकस महिला प्रधान फिल्में ही होंगी?
कहानी जब दिल को छू जाती है उस वक्त निर्देशक उस कहानी पर गौर फरमाता है और फिल्म आकार लेने लगती है। यह सोचकर शायद ही कोई फिल्म बनती होगी की महिला प्रधान ही फिल्म बनानी है। एक महिला होने के नाते मुझे लगता है महिलाओं को जज करना अब बंद होना चाहिए। हर स्त्री में आदर्श स्त्री के गुण होने चाहिए, इस तरह की उम्मीदें स्त्रियों से की जाती हैं। स्त्री अगर आउट ऑफ द बॉक्स सोचे यह अमूमन समाज में गवारा नहीं होता। स्त्री को हल्के में लेना नहीं चाहिए।