संजय राऊत -कार्यकारी संपादक
हरियाणा में भाजपा को सिर्फ एक फीसदी ज्यादा वोट मिले। लेकिन कांग्रेस को उन्होंने फिर से सत्ता में आने से रोक दिया। कांग्रेस के वोटों में १३ फीसदी वृद्धि होने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। हरियाणा में भाजपा की जीत अनपेक्षित है। माहौल कांग्रेसमय था। फिर भी यह हादसा क्यों हुआ? हरियाणवी जनता ने भाजपा के खिलाफ लाठियां उठा ली थीं!
लोकसभा नतीजों के बाद मुरझाया हुआ चेहरा खिलाकर अपने प्रधानमंत्री मोदी को हरियाणा की जीत का लड्डू खाते हुए देश ने देखा। मानो उन्होंने कोई बड़ी जीत हासिल की हो। प्रधानमंत्री मोदी हमेशा विदेश दौरों पर रहते हैं। जब वह विदेश में नहीं होते हैं, तब देश में चुनाव प्रचार करते नजर आते हैं। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं। हरियाणा में कांग्रेस की हार हुई, वहीं जम्मू-कश्मीर में मोदी और शाह की हार हुई है। लेकिन हरियाणा में कांग्रेस की हुई हार की चर्चा ही भाजपा ज्यादा कर रही है। एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील सीमावर्ती राज्य ने मोदी-शाह को नकार दिया, इस पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है। राजनीति की सारी बातें कुछ समय के लिए हरियाणा की ओर मुड़ गई हैं। हरियाणा में कांग्रेस की हार देश में एकजुट हुए ‘इंडिया अलायंस’ के लिए झटका है। हरियाणा में इस बार कांग्रेस की जीत तय थी। विजय की थाली भरकर लोगों ने कांग्रेस के सामने परोस दी थी। लेकिन थाली का निवाला होंठों तक पहुंचने से पहले ही भाजपा थाली उठाकर ले गई, कुल मिलाकर ऐसा ही नजर आता है।
नेतृत्व किसका?
हरियाणा में कांग्रेस पिछले १०-१५ साल से एक ही नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के इर्द-गिर्द घूमती रही और उनके नेतृत्व में कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हारी। हुड्डा हरियाणा में जाट नेता हैं। पूरा जाट समाज उनके पीछे खड़ा था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने बाकी बचे ५६ फीसदी अन्य समुदायों पर काम किया। भाजपा ने सभी निर्वाचन क्षेत्रों में जाति-आधारित निर्दलीय उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जो कांग्रेस के वोट खाएंगे। इन निर्दलीय उम्मीदवारों को वित्तीय रसद प्रदान की गई और उनकी प्रचार मशीनरी को भाजपा के दिल्ली मुख्यालय से नियंत्रित किया गया। हरियाणा का माहौल कांग्रेस के अनुकूल था। दस साल तक भाजपा की सरकार रही। उस सरकार के खिलाफ आक्रोश था। लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस के मौजूदा १६ विधायक हार गए। नाराजगी सिर्फ सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ नहीं होती, बल्कि उन लोगों के खिलाफ भी रहती है जो सालों से विपक्षी पार्टियों की सीटों पर काबिज हैं। अगर जनता राज्य में बदलाव चाहती है तो विपक्षी दल को भी अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। हरियाणा में ऐसा नहीं हुआ। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को हरियाणा में काफी अच्छा प्रतिसाद मिला। गांधी के प्रति लोगों में काफी प्रेम है। लेकिन हरियाणा में कांग्रेस गांधी की लोकप्रियता का फायदा नहीं उठा पाई। हरियाणा में कांग्रेस क्यों हारी?
हरियाणा में कांग्रेस अपने दम पर ही सत्ता स्थापित करना चाहती थी? और माहौल वैसा ही था। ‘इंडिया अलायंस’ के किसी भी घटक दल को उन्होंने अपने साथ नहीं लिया। हरियाणा में समाजवादी पार्टी और ‘आप’ को अपने साथ लेने में कोई आपत्ति नहीं थी। हरियाणा के पत्रकारों का कहना है कि टिकट और उम्मीदवारी बंटवारे पर भूपेंद्र हुड्डा का ही प्रभाव था और दिल्ली के ‘आलाकमान’ ने भी उसमें ज्यादा हस्तक्षेप नहीं किया।
भाजपाविरोधी लाठी
हरियाणा के गांव-गांव में भाजपाविरोधी रोष था। भाजपा नेताओं को गांवों में घुसने नहीं दिया जाता था। हरियाणा के किसान ने भाजपा के खिलाफ तीव्र आंदोलन की लाठी उठाई थी। ‘अग्निवीर’ योजना को लेकर सबसे ज्यादा गुस्सा हरियाणा के युवाओं में था। क्योंकि हरियाणा के सबसे ज्यादा युवा सेना में हैं। महिला खिलाड़ियों के अपमान और विनयभंग के कारण हरियाणा में काफी उबाल था और भाजपा को अब सबक सिखा कर रहेंगे, ऐसी गर्जना गांव-गांव में हुआ करती थी। उसी हरियाणा में चुनाव भाजपा के हाथ आ गया और कांग्रेस पिछड़ गई, यह एक पहेली ही है। चुनाव के दौरान भूपेंद्र हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच का विवाद चरम पर रहा। हरियाणा की जनता ने भाजपा के खिलाफ लाठियां उठाई थीं। लेकिन हरियाणा कांग्रेस में खुलेआम आपस में ही ‘लाठीचार्ज’ शुरू हो गया। यह तमाम मीडिया में प्रकाशित हुआ। कुमारी शैलजा दलित समुदाय की नेता हैं। उन्हें प्रचार करने आने ही नहीं दिया गया। फिर भी लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया। कांग्रेस को इस बार २०१९ की तुलना में १३ फीसदी ज्यादा वोट मिले। २०१९ के चुनाव में कांग्रेस को २८ फीसदी वोट मिले थे। इस बार चालीस फीसदी से ज्यादा मिले। भाजपा के वोट सिर्फ तीन फीसदी बढ़े। पिछले चुनाव में भाजपा को ३७ फीसदी वोट मिले थे। इस बार ४१ फीसदी। सिर्फ एक फीसदी से भाजपा सत्ता में आई और मोदी जीत का लड्डू खा रहे हैं। इस एक फीसदी वोट को कांग्रेस से खींचने के लिए पैसे और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया गया। कांग्रेस इसी रणनीति में पिछड़ गई। एक पत्रकार ने अपनी हरियाणवी भाषा में कहा, ‘हरियाणा के लोग कांग्रेस को वोट देने के लिए चिल्ला रहे थे, लेकिन कांग्रेस का ‘रवैया’ ऐसा था, ‘‘रहण दे ताऊ, ताई! थारा भोट तू ही रक्ख!’’ अपने विजयरथ को कौन रोकेगा? इसी भ्रम में कांग्रेस रह गई। हरियाणा में कांग्रेस की हार देश में अहंकार, तानाशाही के खिलाफ लड़ने वाले सभी तत्वों की हार है। कांग्रेस अगर हरियाणा में जीत जाती तो दिल्ली सरकार का समर्थन का स्तंभ जरूर हिल जाता। इसलिए मोदी जीत गए हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। जम्मू-कश्मीर में वे पूरी तरह हार गए हैं।
मंत्री हार गए
हरियाणा में भाजपा के ज्यादातर सभी प्रमुख मंत्री हार गए, लेकिन पार्टी जीत गई। हरियाणा के नतीजों का अहम संदेश यह है कि ‘सर्वे’ और ‘एग्जिट पोल’ बेकाम के हैं। भाजपा और उसके सहयोगियों को लगता है कि हरियाणा के नतीजों का असर महाराष्ट्र पर पड़ेगा। भाजपा ने हरियाणा में जीत के लिए जो तकनीक अपनाई थी, वही तकनीक महाराष्ट्र में भी अपनाएंगे। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में धन और जाति-आधारित उम्मीदवारों को लगाकर महाविकास आघाड़ी की दौड़ को रोकेंगे, यही उनकी नीति है। लेकिन ये तकनीक महाराष्ट्र में काम नहीं करेगी। हरियाणा विजय का ‘एकटक्की’ धूल अब नीचे बैठ गई है। क्योंकि जनता समझ चुकी है कि मोदी-शाह-भाजपा की कोई भी जीत खरी नहीं होती। हरियाणा में भाजपा विजय की ‘चोट’ महाराष्ट्र को समझदार बना रही है।
‘‘रहण दे ताऊ, ताई!
थारा भोट तू ही रक्ख!’’
ऐसा अहंकार महाराष्ट्र में कोई भी नहीं दिखाएगा। महाराष्ट्र पर फिर से बेईमानों का राज नहीं आएगा, ये पक्का है!