चोरी चुपके से…

तू आती क्यूं है ऐसे में बेवजह-सी
कभी नींदों की खिड़की
खुल जाती है, जरा-सी
कभी मस्तानी हवाएं यूं
तेरी महकी खबरें यूं
ले आती हैं, जरा-सी
बोलना चाहूं जो
मिलना चाहूं जो
उड़ी-उड़ी सी ये
हल्की- हल्की सी ये
ख्वाबों के पतंगों से,
यूं ही झिलमिलाती है
खोने का डर भी
लगता है ऐसा भी
जैसे छांव हौले से आती हैं
और आके फिर लौट जाती है
कोई तो है, जो खटखटाता है,
दिल कहीं, चुप रहता हूं तो भी,
जगाता है कहीं यूं तो लगता है
जैसे कोई हो इक अपना-सा
इक जहां…जो रोशन हैं
मेरे इश्क में कुछ इस तरह..
चोरी चुपके से…।
-मनोज कुमार.
गोण्डा, उत्तर प्रदेश

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