मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : बांद्रा में शूटआउट के सियासी मायने!

सम-सामयिक : बांद्रा में शूटआउट के सियासी मायने!

शाहिद ए चौधरी
दशहरा की रात हर तरफ पटाखों का शोर था, इसलिए बांद्रा में वरिष्ठ राजनेता की हत्या करने के लिए गैंगस्टर्स ने जो गोलियां चलार्इं, वो किसी को सुनाई नहीं दीं। जियाउद्दीन बाबा सिद्दीकी पूर्व विधायक व महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहे थे। उन्होंने हाल ही में कांग्रेस छोड़कर अजीत पवार की एनसीपी की सदस्यता ग्रहण की थी। वैसे उनके हर पार्टी में गहरे संबंध थे और उनकी इफ्तार पार्टियों में बॉलीवुड का हर प्रमुख चेहरा शामिल होता था। महाराष्ट्र में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनावों से ठीक पहले बाबा जैसे प्रभावी नेता की सनसनीखेज हत्या ने न केवल राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया है, बल्कि ये फुसफुसाहट भी पैदा हो गई है कि क्या बारास्ता राजनीति मुंबई में फिर से अंडरवर्ल्ड उभर रहा है?
खैर, पुलिस ने पकड़े गए संदिग्ध हत्यारों की रिमांड की मांग करते हुए अदालत से कहा है कि चूंकि महाराष्ट्र में चुनाव जल्द होने वाले हैं इसलिए वह यह जांच करना चाहती है कि हत्या का कारण कहीं राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता तो नहीं है। वैसे इस हत्याकांड ने मुंबई की उन घातक यादों को फिर से जिंदा कर दिया है, जब पूरी महानगरी गैंग वॉर की चपेट में रहती थी। पुलिस इस बात की भी जांच कर रही है कि क्या वास्तव में इस हत्याकांड में बिश्नोई गैंग का ही हाथ है, जैसा कि एक फेसबुक पोस्ट में दावा किया गया है। यह इसलिए भी चिंताजनक है कि अगर राजनीतिक सांठ-गांठ के साथ मुंबई में गैंगस्टर्स एक बार फिर से राज करने लगते हैं, तो देश के विकास संबंधी लक्ष्य पर असर पड़ेगा, क्योंकि मुंबई कोई सामान्य शहर नहीं, बल्कि देश की वित्तीय राजधानी है।
मालूम हो कि ६६ वर्षीय बाबा की हत्या करने का तरीका एकदम वैसा ही है, जैसा कि पिछले साल उत्तर प्रदेश में अतीक अहमद व उसके भाई अशरफ को मारने के लिए प्रयागराज में तथा लखनऊ की अदालत में संजीव महेश्वरी की हत्या करने के लिए अपनाया गया था। यह समानता परेशान करने वाली है। इन तीनों ही मामलों में पैटर्न यह रहा कि शक्तिशाली छुपे हुए खिलाड़ियों ने स्टीक व गहरे प्रभाव के साथ हाई-प्रोफाइल हत्याएं कराने के लिए कम आयु के अज्ञात शूटर्स को ठेका दिया, जिनका आपराधिक रिकॉर्ड न के बराबर या बिल्कुल नहीं था। अतीक व अशरफ की हत्या प्रयागराज के काल्विन अस्पताल वैंâपस में १५ अप्रैल २०२३ को हुई थी, जहां पुलिस उन्हें मेडिकल जांच के लिए ले गई थी, तभी लवलेश तिवारी (२२), मोहित सिंह उर्फ शानी (२३) व अरुण मौर्य (१८) नामक हत्यारों ने कर दी थी, जो कि पत्रकार बनकर आए थे। पुलिस इस पूरे घटनाक्रम की मूक दर्शक बनी रही थी।
इसके लगभग दो माह बाद यानी ७ जून २०२३ को महेश्वरी उर्फ जीवा को लखनऊ की अदालत के अंदर इसी तरह मार दिया गया, जो हाई-प्रोफाइल गैंगस्टर था। पुलिस उसे सुनवाई के लिए लेकर आई थी। यहां हत्यारा विजय यादव अदालत में वकील बनकर आया था और उसने महेश्वरी पर ६ गोलियां दागीं। यादव की महेश्वरी से कोई दुश्मनी नहीं थी यानी वह भी किसी शक्तिशाली व्यक्ति के लिए काम कर रहा था, शायद किसी नेता के लिए। उत्तर प्रदेश के इन दोनों हत्याकांडों में कॉन्ट्रेक्ट शूटर्स का कोई पूर्व आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था या वह छुटभैय्या अपराधी थे। इसके बावजूद वे अति संगठित थे व हत्या करने में सफल रहे। जांचकर्ताओं का मानना है कि इन शूटर्स को अत्यधिक शक्तिशाली व्यक्तियों ने ठेका दिया था, अच्छे हथियारों की व्यवस्था कराई थी और रेकी के बाद पूरी योजना बनाकर दी गई थी।
बाबा की हत्या में भी यही पैटर्न नजर आता है। सोचने की बात यह भी है कि इन तीनों हत्याओं के समय पुलिस मौजूद थी और उसने हत्यारों के मंसूबे विफल करने के लिए कुछ नहीं किया। क्यों? क्या कहीं ऊपर से कोई इशारा था? बाबा को वाई वैâटेगिरी की सुरक्षा मिली हुई थी। यह वैâसी सुरक्षा थी कि सुरक्षाकर्मियों की आंखों में धूल झोंककर हत्या कर दी जाती है? बाबा के तीन में से दो हत्यारे (धर्मराज कश्यप व शिव कुमार गौतम) बहराइच के वैâसरगंज में गंदारा गांव के हैं और पड़ोसी हैं। तीसरा हत्यारा २३ वर्षीय गुरमेल सिंह हरियाणा का है और उसे भी गिरफ्तार कर लिया गया है। उसने २०१९ में अपने कजन की हत्या की थी।
धर्मराज व शिव कुमार १८-१९ साल के हैं और पुणे में स्व्रैâप का काम करते थे। इन तीनों संदिग्धों की बाबा से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। जांच से ही हत्या करने का उद्देश्य सामने आ सकता है और यह भी कि क्या इसमें कोई राजनीतिक एंगल भी है? यह संभव है कि इन हिटमेन का संबंध लॉरेंस बिश्नोई से ही हो और उसने ही इन्हें आधुनिक हथियार उपलब्ध कराए हों, लेकिन यह थ्योरी हजम नहीं की जा सकती है कि बाबा को इसलिए मारा गया क्योंकि वह एक्टर सलमान खान के दोस्त थे। इस थ्योरी से तो सलमान खान के हर दोस्त की जान खतरे में आ जाएगी। गौरतलब है कि कुछ माह पहले सलमान खान के घर पर गोलियां चलाई गई थीं। हालांकि आगे आने वाले दिनों में बहुत कुछ स्पष्ट हो सकता है, लेकिन राजनीतिक वर्ग के लिए इस हत्या के भयावह प्रभावों को अनदेखा करना मुश्किल होगा। दूसरी ओर आगे आने वाले दिनों में साजिश की अजीबोगरीब थ्योरी भी सामने आएंगी। हाई-प्रोफाइल राजनीतिक अपराध कहानियों के लिए मसाला होता है। मुंबई के लिए शूटआउट्स का होना या राजनेताओं को निशाना बनाना कोई अनोखी बात नहीं है। लेकिन आने वाले विधानसभा चुनाव में स्टेक्स कितने ही अधिक क्यों न हों, लेकिन इस किस्म की गंदगी चुनावी पानी को मैला कर देती है, भले ही जांच से यह मालूम हो कि हत्या या उसके समय का सीधे तौर पर कोई चुनावी मकसद नहीं था।

अब १९९० का मध्य फिर चर्चा में आ गया है, जब मुंबई के कम से कम तीन चुनावी क्षेत्रों में डॉनों का दबदबा था- उत्तर पूर्व मुंबई में छोटा राजन, दक्षिण मुंबई में छोटा शकील और दक्षिण केंद्र में अरुण गवली। लेकिन यह सही अनुमान लगा लिया गया था कि अंडरवर्ल्ड द्वारा राजनीतिक वर्ग पर हमले का दौर खत्म होता जा रहा है, केवल इसलिए नहीं कि माफिया को खत्म किया जा रहा था बल्कि इसलिए भी कि तथाकथित नेताओं और निहित स्वार्थों ने एक तरह से साझा मैदान तलाश लिया था।
यह बात डराती है कि वाई-सुरक्षा होने के बावजूद बाबा की हत्या हो गई। पैदल हत्यारों ने आसानी से सुरक्षा कवच को भेद दिया। चुनाव के समय पुनर्विकास प्रोजेक्ट्स फोकस में हैं। धारावी पुनर्विकास प्रोजेक्ट पर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे अपनी चुनावी उम्मीदें लगाए हुए हैं। बाबा की २०१८ में ईडी जांच हुई थी और पीएमएलए के तहत उनकी ४६२ करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त कर ली गई थी। इस आरोप में कि महाराष्ट्र हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन रहते हुए उन्होंने अपने पद का दुरूपयोग किया था। फरवरी में वह अजीत पवार गुट में शामिल हो गए थे और कांग्रेस ने उनके विधायक बेटे को पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में निलंबित कर दिया था, जिससे अफवाहों का बाजार गैर-आश्चर्यजनक कारणों से गर्म हो गया। मुंबई के मंझे हुए नेता जानते हैं कि अपराध का कोई समुदाय या धर्म नहीं है।
महाराष्ट्र की सभी ६ बड़ी पार्टियों में बदलाव की उम्मीद कीजिए। भले ही शिंदे यह कहें कि ‘गैंग वॉर जैसी स्थिति से हर सूरत में बचना है’, लेकिन महाराष्ट्र में जिस तरह से अपराध बढ़ता जा रहा है, उससे वे मुंह नहीं मोड़ सकते हैं। विपक्ष मुंबई की कानून व्यवस्था पर चिंता व्यक्त कर रहा है। वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा है मुस्तैदी से। अब सवाल यह उठता है कि मुख्यमंत्री और उनकी सरकार सिर्फ लीपा-पोती करती है या ईमानदारी से तह तक जाने का पैâसला लेती है क्योंकि चुनाव अगले माह होने जा रहे हैं। एक नेता की सरेआम हत्या का असर तो जरूर देखने को मिलेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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