अनिल तिवारी
मुंबई
दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा हर दिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर निर्भर रहता है। मुंबई की ढाई-पौने तीन करोड़ जनता भी इसका अपवाद नहीं है। उन्हें भी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए सिटी ट्रांसपोर्ट की जरूरत पड़ती है, जिन्हें पूरा करती हैं संबंधित क्षेत्रों की लोकल अथॉरिटीज। परंतु दुर्भाग्य यह है कि इन सभी अथॉरिटीज में परिचालन, संचालन और व्यवस्थापन को लेकर कोई खासा सामंजस्य नहीं है, जिसका खामियाजा भुगतती है तो यहां कि सामान्य जनता और नुकसान उठाती है सरकारी ट्रेजरी।
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई लोगों के लिए सपनों का शहर है। दशकों से देशभर के तमाम नागरिक यहां विस्थापित होकर आते रहे हैं। यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। जब तक शहर की क्षमता थी, उसने लोगों को यहां पर स्थान दिया पर जब मुंबई ओवर क्राउडेड हो गई तो लोग आसपास के उपनगरों में बसते चले गए। ठाणे जिले की ओर बढ़ गए। नतीजा यह हुआ कि देखते ही देखते मुंबई महानगर से सटकर ८ नए महानगरों (महानगर पालिकाओं) का निर्माण हो गया। आज एमएमआर में मुंबई समेत कुल ९ महानगरों का समावेश है और उतनी ही संख्या में इसमें समाविष्ट हैं अन्य नगर पालिकाएं। महानगरों के इस मेगा संकुल की सबसे बड़ी जरूरत है तो वो है सड़क परिवहन का सस्ता, सुगम और सुचारु विकल्प। वैसे तो यह पूरा क्षेत्र एक विस्तृत और विशाल उपनगरीय रेल नेटवर्क से जुड़ा है, मेट्रो के नेटवर्क पर भी यहां काम चल रहा है। तब भी ये एमएमआर की जरूरतों को पूरा करने में नाकाफी हैं।
पिछले कुछ दशकों में मुंबई महानगरीय क्षेत्र (एमएमआर) का जिस तेजी से विस्तार हुआ है, उसी तेजी से बढ़ी हैं क्षेत्र की परिवहन आवश्यकताएं। नतीजे में एमएमआर की लगभग सभी महानगर पालिकाओं ने अपने-अपने स्तर पर परिवहन मंडलों का गठन किया है। कुछ वर्ष पहले तक ये मंडल नगर अंतर्गत सार्वजनिक परिचालन तक ही सीमित थे, पर अब इन्हें संपूर्ण एमएमआर में ऑपरेशंस की अनुमति है। तब भी इनके परिचालन का अपेक्षित लाभ जमीनी स्तर पर नजर नहीं आता। इनमें परिचालन संबंधी तमाम बदलावों और नीतिगत सुधारों की आवश्यकता महसूस होती है और ये आवश्यकताएं तब तक पूरी नहीं हो सकतीं, जब तक संपूर्ण एमएमआर में शहरी सार्वजनिक परिवहन का संचालन, परिचालन और व्यवस्थापन एक छत के नीचे, एक ही हाथ में न आ जाए। अर्थात, जब तक पूरे एमएमआर के लिए एक एकीकृत शहरी परिवहन प्राधिकरण, यानी मुंबई महानगरीय क्षेत्र परिवहन निगम का गठन नहीं होगा, तब तक एमएमआर में शहरी बसों का न तो व्यवस्थित परिचालन हो सकेगा, न ही सार्वजनिक परिवहन सेवा को घाटे से उबारा जा सकेगा।
‘एंड टू एंड कनेक्टिविटी’ के मसले पर लोकल ट्रेनें ज्यादा कारगर साबित नहीं होतीं। मेट्रो इसका बेहतर विकल्प बन सकती थी, बशर्ते, इस पर जल्दबाजी में केवल सियासी लाभ के लिए काम शुरू न कराया जाता। इसके नियोजन में कई त्रुटियां हैं, जो समय के साथ उजागर होगी ही। सरकार भले ही दावा करे कि मेट्रो के संपूर्ण परिचालन की सूरत में बसों का बोझ कम होगा, पर हकीकत में उसके दावों में ज्यादा दम नहीं है। दिल्ली की सड़कों पर दौड़नेवाली सिटी बसों को मेट्रो के मेगा नेटवर्क से कहां राहत मिली? भविष्य में लगभग यही सूरत एमएमआर की भी होगी, यह तय है। एक अनुमान के आधार पर संपूर्ण एमएमआर में ५,००० से अधिक बसों का सार्वजनिक परिचालन होता है, तब भी उनसे अपेक्षित लाभ जनता को नहीं मिल पाता, वहीं दूसरी ओर अमूमन सभी बस प्राधिकरण घाटा उठाते हैं वो अलग से। जनता अमूमन बसों के इंतजार में कभी घंटों सड़क पर बिताती है तो कभी एक के पीछे एक रिक्त बसों के काफिलों का गवाह बनती है। कमजोर प्रशासकीय यंत्रणा और अव्यवस्थित इंप्रâास्ट्रक्चर की अड़चनों से उसे रोज दो-चार होना पड़ता है। मुंबई जैसे महानगर में प्रभावी यात्रा का विकल्प उसे ‘बेस्ट’ से भले ही मिल जाता हो पर इंटरसिटी ट्रांसपोर्ट के अलग-अलग विकल्प उसके लिए इतने उपयोगी साबित नहीं होते, जितने की उसे अपेक्षा होती है। मसलन, ठाणे परिवहन, नई मुंबई परिवहन, मीरा-भायंदर, वसई-विरार, भिवंडी-निजामपुर, कल्याण-डोंबिवली और उल्हासनगर मनपाओं के परिवहन विकल्प उसके सामने हैं तो, परंतु यहां सबकी समग्र संचालन गतिविधियों का बड़ा पेच है। उन सबमें आपसी परिचालन सामंजस्य का अभाव है, जो समस्या को सुलझाने की बजाय उलझाने का कारण ज्यादा बनती हैं। मुंबई में ‘बेस्ट’ की ३,००० से अधिक बसों का सफल परिचालन विद्युत राजस्व की कीमत पर हो जाता है। परंतु अन्य मनपाओं के पास तो यह विकल्प भी नहीं है। उन्हें तो अपने दम पर धन जुटाना पड़ता है और आड़े आते हैं तो संसाधन।
ऐसे में इसका कारगर विकल्प यही है कि सभी परिवहन मंडलों के ऊपर एक बस प्राधिकरण बनाया जाए। इसी से सिटी बसों का बेहतर संचालन हो सकेगा और संपूर्ण एमएमआर क्षेत्र में प्रभावी रूट्स की प्रॉपर प्लानिंग भी। एमएमआर के भविष्य के लिए यह आवश्यक भी हैं। इससे सभी परिवहन मंडल एक-दूसरे के इंप्रâास्ट्रचर मसलन, बस स्टॉप्स, बस डेपोज का इस्तेमाल भी कर सकेंगे, जिससे सभी पर अलग-अलग ढांचागत निवेश का बोझ भी कम होगा। खर्च पर लगाम लगेगी व आमदनी के अवसर बढ़ेंगे। एक संयुक्त प्राधिकरण के प्रभाव में आने से मैन पॉवर मैनेजमेंट, इंटीग्रेटेड टेक्नॉलॉजी सपोर्ट, मेंटेनेंस इत्यादि तमाम क्षेत्रों में व्यापक सुधार होगा। इससे विज्ञापन राजस्व में भी भारी इजाफा देखने को मिल सकेगा। एकीकृत परिवहन प्राधिकरण राजस्व के अन्य विकल्पों पर भी बेहतर फोकस कर सकेगा, जैसा कि अब तक देखने में नहीं मिला है। जब इसकी कमान किसी आईएएस स्तर के कर्मठ अधिकारी के हाथ में होगी तो परिचालन और राजस्व के तमाम अवसर भी पैदा हो सकेंगे। पर्यटन को बढ़ावा मिल सकेगा। प्राधिकरण की प्रॉपर्टी लीज पर देकर अतिरिक्त आमदनी की जा सकेगी। सेंट्रलाइज्ड कमांड से बहुत सारे संचालन संबंधी सुधार, कास्ट मैनेजमेंट और रेवेन्यू जनरेशन के अवसर बढ़ेंगे। ग्रोथ के रास्ते खुलेंगे।
सो, एमएमआर को जरूरत है शहर बस व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की, उसका दायरा बढ़ाने की व सार्वजनिक बस परिवहन को एकीकृत करके और अधिक कारगर करने की। लिहाजा, सरकार को चाहिए कि वो शहर परिवहन को संबंधित मनपाओं के अधीन टुकड़ों में बंटे मंडलों को एकीकृत करके बेहतर प्रशासकीय व्यवस्था की ओर ले जाए। यदि वो एमएमआर की सभी मेट्रो लाइन्स का सेंट्रलाइज्ड कंट्रोल सिस्टम प्रभावी मानती है, लोकल गाड़ियों के लिए रेलवे का अलग प्राधिकरण आवश्यक समझती है तो उसे रोड ट्रांसपोर्ट का भी एकीकृत सार्वजनिक परिवहन प्राधिकरण बनाना ही चाहिए। यही राज्य के हित में है और एमएमआर के आम नागरिक के पक्ष में भी।