राख

धूप जले
अगरबत्ती जले
कर्पूर जले
जले लोबान
कपास, काष्ठ , कोयला जले
जल कर बनते राख।
झोंपड़ी,घर, प्रसाद जले
दावानल जला दे कानन
बचती अंत में राख
जिसे पवन उड़ा कर
देती बिखरा।
कह गये भक्त कबीर
‘लकड़ी जल कोयला भइ
कोयला जल भई राख
मैं बिरहन(पापिन)एसी जली
कोयला भई न राख’।
सत्य है विरहन और पापिन में
अंतर ही कितना है।
जलता दोनों अवस्था में
नारी का मन है ।
जलते मन से न धुआं उठे
न ही बनती राख।
पवन उड़ाए न,जल बहाए
विरही मन स्वयं बिखर जाए।
संवारें संवरता नहीं
सम्हाले सम्हलता नहीं।
श्वासो संग होता निष्प्राण
काष्ठ,कपूर, कपास, संग
अंत में हो जाता राख।
बेला विरदी।

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