रास्ते

देर रात घर आया हूं
ई-रिक्शा खड़ी कर रहा हूं।
घुप अंधेरे में न कोई इससे टकराए
कोई पड़ोसी लड़ते-लड़ते इसे न जलाए।
द्वार खुलते पत्नी की प्रश्न करती दृष्टि
झेल नहीं पाया, स्वयं ही कुछ बुदबुदाया।
पूरे माह पर्वों का तांता, ऊपर से
एक लम्बी सामान की सूची,
कैसे होगी पूरी।
धूप, दीप, तेल, खील बताशे, मिठाई
बकाया घर का किराया,
रिक्शा की मासिक किस्त, बिजली बिल।
राह निकलती देती न दिखाई
माथे पर स्वेद की बूंदें उभर आईं।
घटती कमाई, बढ़ती महंगाई
त्योहारों की बदलती तस्वीर
नित नए-नए सामान से सजे बाजार
आसमान छूते पटाखों, फुलझड़ियों के मूल्य
बच्चों को कैसे समझाएं
परिवार की आशाएं, निराशाएं पर्वों में बढ़ जाएं।
निकट भविष्य में नहीं मिल रहा समाधान।
प्रतिदिन अल्प कमाई पर दिखती थी
पत्नी की आंखों में निराशा
मैं हूं आज निराश दिनभर का देते हिसाब।
निट्ठल्ला कभी बैठा नहीं
खाता अपनी दसों उंगलियों की कमाई।
सुनता हूं इसमें ही है बरकत
मुझे अब तक नहीं दी दिखाई।
मस्तिष्क का कीड़ा कुलबुलाने लगा है
कुछ अनैतिक जुगाड़ लगाने लगा है।
वास्तविकता का भान हो रहा है
कुमार्ग पर कोई चलने लगा है।
यहीं से जीवन के रास्ते भटक जाते हैं
सन्मार्ग से कुमार्ग पर चले जाते हैं।
-बेला विरदी

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