मातृत्व

यह कैसा मातृत्व।
दिखी थी एक मादा श्वान
मातृत्व बोझ से दबी।
गली-गली, दर-दर भटक रही
बिलबिलाती, तड़पती भूख से।
शायद ढूंढ़ लिया होगा
उसने एक सुरक्षित कोना
जहां दे सके जन्म अपने शिशुओं को।
तीन-चार दिन नहीं तजा अपना स्थान
जहां बंद आंखें पड़े थे छह शिशु अंजान।
जिस दिन कुलबुलाईं होंगी उसकी आंतें
बूंद दूध की न टपकी उसके स्तनों से।
निकली छोड़ पीछे बच्चे
छान डाला कूढ़े का ढेर पंजों से।
मुंह मार-मार खोज रही गली-गली हर गेट
नहीं मिला कुछ भी जो भरता उसका पेट।
दूर नहीं जाती, बच्चों के मोह में
पल-पल वापिस आती बच्चों के रुदन से।
कृशकाय श्वान मां नहीं हो पाती खड़ी
ममता, भूख की नहीं जाती लड़ाई लड़ी।
पेट जा लगा मेरू से, सूख गए स्तन
मात्र अस्थियों का ढांचा गिर गया बीच सड़क के,
चलती गाड़ी रौंद गई, निकल न पाई चीख।
कितनी असहाय होती ऐसी पशु माताएं
जो हैं पूर्णतः आधीन प्रकृति के।
क्यों न इनकी जन्म-दर पर रोक लगाएं
पशु अधिकारों वाले क्यों रोड़ा अटकाएं।
कुछ तो अब करना होगा
इनकी लाचारी को अब समझना होगा।
इस समस्या पर संज्ञान लेना होगा
निरीह मांओं को इस तरह नहीं भूखे मरना होगा।
-बेला विरदी

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