हमारे चुनावों में हमेशा ही बागियों की जबर्दस्त फसल होती है। इस चुनाव में भी पैदाइश जबर्दस्त है। महाराष्ट्र विधानसभा की २८८ सीटों के लिए ७ हजार ९०५ उम्मीदवारों के १० हजार ९०० आवेदन दाखिल किए गए थे। नाम वापसी के आखिरी दिन हजारों उम्मीदवारों ने अपना आवेदन वापस ले लिया। इसका मतलब यह नहीं है कि बागियों की बगावत थम गई है। २८८ सीटों पर अभी भी उम्मीदवारों की भारी भीड़ है। निर्दलीय, छोटे दल, जिलास्तरीय गठबंधन और यहां तक कि असंतुष्टों द्वारा भरे गए आवेदन अभी भी मौजूद हैं। मनोज जरांगे ने भी सबसे पहले चुनाव लड़ने और कुछ को उखाड़ फेंकने के अपने ‘प्लान’ की घोषणा की, लेकिन अंत में उन्होंने पैâसला किया कि चुनाव न लड़ना ही बेहतर है। अन्यथा उनके प्रत्याशी भी मैदान में होते। कुल मिलाकर महाराष्ट्र में दो प्रमुख गठबंधन और कई अन्य उम्मीदवार मैदान में हैं। मैदान में इस भीड़ से लोकतंत्र ढह तो नहीं जाएगा? ऐसा डर लगने लगा है। जहां एक ओर दिवाली के पटाखे फूट रहे थे तो वहीं महाराष्ट्र में सर्वदलीय बगावत के पटाखे भी फूटे। पूर्व भाजपा सांसद गोपाल शेट्टी जैसे लोगों ने ‘बगावत’ का नाटक किया और नामांकन पत्र दाखिल करने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही फडणवीस ने ‘ईडी’ की चाल चली, गोपाल राव की सारी नौटंकी बंद हो गई और वह पीछे हट गए। इस दौरान असंतुष्टों और बागियों को किस-किस तरह के प्रलोभन दिए गए होंगे? पीछे हटने के लिए मान-मनौवल किया गया होगा और उनमें से कई लोगों को उनके दल के नेताओं ने ‘विधान परिषद’ महामंडल आदि के आश्वासन दिए होंगे, जिसकी कोई गिनती नहीं होगी। सैकड़ों लोगों ने सिर्फ इस आश्वासन पर कि ‘इस बार उन्हें विधान परिषद में भेज ही दिया जाएगा!’ इस हिसाब में राज्य विधान परिषद में विधायकों की संख्या ५०० तक बढ़ानी होगी और हजार तक १,००० महामंडलों का निर्माण करवाना पड़ेगा। लोकतंत्र अब चुनावों तक ही सीमित है और चुनाव अब आम आदमी की पहुंच में नहीं रह गए हैं। चुनाव जनता के नाम पर सभी द्वारा की जाने वाली सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत राष्ट्रीय धोखाधड़ी है। इस धोखाधड़ी की यह तस्वीर गढ़ रहे हमारे राजनेता लोकतंत्र और चुनाव को कितनी गंभीरता से लेते हैं, यह ‘इस धोखाधड़ी से यही पता चलता है।’ लोकतंत्र का जन्म किसी कानून की किताब या अदालत में नहीं होता, बल्कि यह जनता की इच्छा से खिलता है। लेकिन जनता की इच्छाओं को कुचला जा रहा है। जनता की इच्छा पर पैसे और लालच द्वारा हमला किया जाता है और अंतत: सारा लोकतंत्र बर्बाद हो जाता है। विश्वासघात से बनी सरकारें पुलिस तंत्र का इस्तेमाल कर चुनाव में डराने-धमकाने का रास्ता अपनाती नजर आ रही हैं और चुनाव आयोग मूकदर्शक बना हुआ है। भारतीय चुनावों में पाखंड और कदाचार को लेकर चुनाव आयोग गंभीर नहीं है। आज की सरकार तो इस पर कभी गंभीर नहीं थी। झारखंड में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, ‘चाहे कुछ भी हो, समान नागरिक संहिता लाएंगे!’ हमें गृह मंत्री से कहना है, चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक निकायों को पहले कानून के अनुसार कार्य करने के लिए कहें। जो कानून है उसका पालन आप करवा नहीं सकते, कानून का पालन नहीं कर सकते और चले हैं समान नागरिक कानून का शिव धनुष उठाने! रश्मि शुक्ला को गैरकानूनी तरीके से महाराष्ट्र के पुलिस महानिदेशक के रूप में बिठाया गया और फडणवीस और अन्य ने उन्हें चुनाव के सूत्र सौंपे। विपक्ष के बार-बार आवाज उठाने के बाद कल चुनाव आयोग ने फडणवीस की लाडली ताई साहब को पद से दूर किया। किसी भी लोकतंत्र में चुनावों का अद्वितीय महत्व है और इसकी निगरानी और नियंत्रण एक निष्पक्ष और सक्षम प्रणाली द्वारा किया जाना चाहिए। क्या आज भी हमारे देश में ऐसी निष्पक्ष व्यवस्था कायम है? अगर चुनाव निष्पक्ष तरीके से नहीं हुए तो बाकी संस्थाओं की क्या कहें? चुनाव एक गरमा-गरम बाजार बन गया है। सबके विचार जहर की तरह उबल रहे हैं। इसमें न तो राष्ट्र का हित है और न ही महाराष्ट्र का हित है। चुनाव लड़ना है इसी ईर्ष्या से लोग चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरते हैं। विचार आदि गर्त में चले गए। उम्मीदवार क्या बात करें? यहां थोक में दल-बदल और बगावत होती रहती है। उम्मीदवारों की भीड़ उसी तरह की है, जिस तरह दो सौ कांस्टेबल पदों के लिए लाखों बेरोजगार आवेदन करते हैं और भर्ती के स्थान पर या साक्षात्कार के समय भारी धक्कम पेल होती है। महाराष्ट्र विधानसभा की २८८ सीटों के लिए हजारों बेरोजगारों के आवेदन आए हैं। उससे पहले लाखों लोगों ने अपने-अपने पार्टी दफ्तरों में इंटरव्यू दिए। फिर उसमें से जो फेल हो गए वे नाराज, बागी, झुंडबाज मैदान में उतरते हैं। उनमें से कुछ ईमानदार होते हैं, लेकिन बागियों के शोर में ईमानदारी खो जाती है। फिर भी, वापसी का दिन शांति से बीत गया। अब अखाड़े के पहलवानों का भविष्य जनता तय करेगी!