एक सपना ऐसा 

चहक-चहक कर मैं
अपना एक-एक कदम
पगडंडी पर आगे बढ़ा रहीं हूं
यह पगडंडी भी अनोखी है।
आकाशगंगा सिमट कर
मेरी पगडंडी बनी है।
मेरा हर कदम स्फटिक से चमकते
पत्थरों पर पड़ रहा है।
देखते -देखते जो मखमली
गलीचों में तब्दील हो रहे हैं।
कौतूहल से भरी चुन – चुन कर
कदमों को दिशा दे रही हूं।
कपास के सम हल्की हो गई हूं
मेरे पैरों में पंख बंध गये हैं।
चुलबुली नन्ही गुड़िया सी भाग रही हुं
अनगिनत मोड़ों से गुज़र रही पगडंडी
कोई सिरा नहीं दिख रहा मुझे।
चलते-चलते, कब एक नन्ही कन्या से
युवा, प्रौढ़ा, अब बुढ़ा गई हूं।
रोमांच धीरे -धीरे विलुप्त हो रहा है
हाथों में पकड़ी फुलझड़ियां बुझने लगी हैं।
पगडंडी के छोटे चमकते पाहन
वृहत आकार ले रहे हैं
ऊबड़-खाबड़ कीचड़ से लथपथ है पगडंडी।
झूलते लटकते पहने वस्त्र
कंटीली झाड़ियां से उलझ रहे हैं।
कुछ शूल पैरों में चुभे
वेदना से कराह उठी हूं।
यह क्या, मै तो अभी बिस्तर पर हूं
मैं शायद सपना देख रही हूं।

बेला विरदी

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