विवेक अग्रवाल
हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।
क्या मजाक है…
दाऊद से भला दाऊद कैसे मिल सकता है, लेकिन ये सच है। वो भी दुबई में मुलाकात हुई। क्या मजाक है!
दुबई में दाऊद है तो उससे वहीं दाऊद कैसे मिलेगा? ये भी सच ही है। असल में दाऊद इब्राहिम की मुलाकात दाऊद फणसे उर्फ दाऊद टकल्या से पहली दफा दुबई में ही तब हुई, जब मुंबई के ९३ बमकांड की साजिश को अंतिम रूप दिया जा रहा था।
१९ जनवरी १९९३ को वह एअर इंडिया की उड़ान से दुबई गया था। वहां टाइगर मेमन विमानतल पर उसे लेने पहुंचा था। उसे होटल दिल्ली दरबार ले गया। २१ फरवरी १९९३ को टाइगर ही उसे दाऊद के घर व्हाइट हाऊस तक कार से ले गया।
दाऊद ने दांत पीसते हुए कहा कि अपनी बाबरी मस्जिद शहीद हो गई है। हमें उसका बदला लेना है। दाऊद टकल्या को उनकी मदद हथियार-गोला-बारूद की तस्करी में करनी होगी। दाऊद टकल्या एक लैंडिंग एजेंट है। वह तस्करी के माल की लैंडिंग महाराष्ट्र और गुजरात में करवाने का माहिर खिलाड़ी है।
उसने बयान में कहा था कि दुबई में फरवरी १९९३ में दाऊद से उसकी मुलाकात हुई थी ताकि रायगड के शेखाड़ी तट पर हथियार-गोला-बारूद की खेप पहुंच सके। बाद में यह माल उसके भागीदार शेख अब्दुल गफूर बारकर उर्फ दादा भाई के गोदामों में छुपाया था। दाऊद टकल्या को ७३ साल की उम्र में अदालत ने बमकांड में सहयोग करने का दोषी करार दिया और सजा सुनाई थी।
दाऊद की दाऊद से ये पहली और आखिरी मुलाकात थी। इसके बाद कभी दाऊद ने पलट कर पूछा भी नहीं कि इस दाऊद का हाल क्या है।
पठानवाड़ी के एक खबरी ने इन हालात को कुछ इस तरह बयान किया-
‘उसका हाल तो भाई फटेले गुब्बारे माफिक हो गया।’
चार ‘महाराज’
एक ही उपनाम या तखल्लुस या उर्फ नाम वाले कितने गुंडे हो सकते हैं। अमूमन गिरोहों में ऐसा होता तो नहीं कि एक उर्फ नाम के दो गुंडे हों। लेकिन यह भी सच है कि ‘महाराज’ ऐसा उर्फ नाम है जो चार गुंडों को मिला है, उनमें से ३ तो पुलिस मुठभेड़ में मारे जा चुके हैं।
रवि घाड़ी का नाम कौन नहीं जानता। वो सुरेश मंचेकर गिरोह का सुपारी हत्यारा था। उसे भी महाराज नाम से पहचाना जाता रहा है।
एक और महाराज था दिलीप सिंह वसंत सिंह राजपूत। गोरेगांव निवासी यह गुंडा विक्रोली में पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था।
खुद गिरोह सरगना सुरेश मंचेकर तीसरा महाराज था। सुरेश मंचेकर मुंबई में आतंक का दूसरा नाम था। अंतिम दिनों में वह आम व्यापारी बनकर कर्नाटक के बेलगाम शहर में शानदार कोठी बना कर रहता था। उसे चार गुंडों समेत ठाणे पुलिस की अपराध शाखा ने एक संदिग्ध मुठभेड़ में गोलियों से भून दिया था।
चौथा महाराज है विष्णु कोरगांवकर उर्फ महाराज। यह भी पुराना हिस्ट्रीशीटर है। इसने समय रहते काले कारोबार से तौबा कर ली। वह सफेद धंधे खोल कर बैठ गया। पुलिस वालों ने भी उसे छेड़ना ठीक न समझा।
पीपी ने ये बातें कहीं तो आगे अपना ज्ञान भी बघार दिया-
‘मेरे कूं तो लगता कि महाराज टोपन नाम फलता नहीं है भाई।’
(पीपी की जुबानी)
(लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)