पंकज तिवारी
दीवाली अभी-अभी बीती थी। चारों तरफ खुशियों का माहौल था। गोरे, नन्हकू, पियारे, बुधई जैसे सभी बच्चे बखरी के मोहारे पर ही छोटे-छोटे मंदिर बनाकर पूजा-पाठ करके खूब खुश थे। मिट्टी तथा गोबरी के लेप से बखरी-बखरी पूरा गांव बिल्कुल ही चमक-दमक रहा था। बस झूलन ददा थे जो बहुत ही परेशान थे, जिनके साथ ही पूरा गांव परेशान हो उठा था। सभी बस अंखियां मूंद इधर से उधर भागने में लगे हुए थे। नाती प्रदीप गांव के और बच्चों के साथ मिलकर पटाखे फोड़ने में व्यस्त था। बस भूल यहीं हो गई थी। ददा और दादी शाम होते ही चारों तरफ दीया और बाती करने में लग गए थे। उसके बाद पूजा-पाठ में लग गए, पर नाती की सुध एक बार भी नहीं आई। बाहर गांव भर के बच्चे लगातार पटाखे फोड़े जा रहे थे। मस्ती-मस्ती में एक-दूसरे पर पटाखे भी फेंक दे रहे थे। करीब घंटे दो घंटे सब ठीक चला फिर अचानक से वो हो गया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। भोलू दियली के पास बैठकर बड़ा वाला बम जला रहा था जिसमें छरछराहट की आवाज आते ही उसने उठाकर फेंक दिया। बम दूर जाकर गिरा और शांत हो गया। नहीं जला। बच्चे दूर से ही देखते रहे कि उसी में कोई बोल पड़ा, देखते हैं कौन पास जाकर पता करता है कि पटाखा जलेगा या नहीं। प्रदीप कूदकर आगे आ गया और मैं जाऊंगा, बोलते हुए आगे बढ़ गया। लोग रोकना भी चाहे पर घटना इतनी तेज घटी कि समय का भान ही नहीं रहा। सब कुछ सेकंडों में हुआ। कोई रोक नहीं सका। पटाखा ऐसे फटा कि प्रदीप का मुंह, गला और दार्इं आंख तक को जला गया। भगदड़ मच गई। ददा दौड़कर गाड़ी के लिए भूलन चचा के पास भागे। पूरे गांव में गाड़ी नहीं थी। बस, भूलन के पास पुराने जमाने का ट्रैक्टर था। बेचारे लगे स्टार्ट करने, लेकिन ट्रैक्टर स्टार्ट ही नहीं हो रहा था। ददा वापस भागते हुए गोद में प्रदीप को लेकर पैदल-पैदल ही भागने लगे और बाकी लोग भी पीछे-पीछे भागने लगे। सभी के चेहरे पर का दर्द देखकर अच्छे से अच्छा करेजा वाला भी कांप जाए। ददा कुछ ही दूर पहुंचे थे कि ट्रैक्टर लिए भूलन आ गए। अस्पताल से अस्पताल भागते रहे, लेकिन एक तो जले और दूसरे बहुत ज्यादा जले होने की वजह से हर डॉक्टर उन्हें सीधे जिला अस्पताल जाने की बात कहता। अंत में थक हार कर ददा को जिला अस्पताल ही जाना पड़ा। तुरंत आईसीयू में डाला गया बालक का मुंह देखा नहीं जा रहा था। इतना जल गया था। कानूनी और कागजी कार्य भी होता रहा साथ के साथ इलाज भी चलता रहा। ‘बहत्तर घंटे तक कुछ नहीं कहा जा सकता’, डॉक्टर के मुंह से ये शब्द सुनते ही ददा बेतहाशा वहीं जमीन पकड़कर बैठ गए। हाय राम, क्यों मैंने ध्यान नहीं दिया? क्यों मैंने उसे बाहर जाने दिया? अब अपने बेटे और बहू को क्या जवाब दूंगा राम? हे भगवान, ये क्या हो गया? लगातार भोंकार छोड़-छोड़ रोते रहे ददा। डॉक्टर ने साथ वालों से कहा, भैया इनको उधर अच्छे से बिठा दो। अभी इनकी स्थिति ठीक नहीं है और इनके रोने से बच्चा जल्दी ठीक भी नहीं हो जाएगा। अब बस इलाज पर और भगवान पर भरोसा करें सब ठीक हो जाएगा। फिलहाल, बहत्तर घंटे क्रिटिकल हैं। आप लोग दुआ करें बाकी हम अपना काम कर रहे हैं। रात किसी तरीके आंखों में ही बीती। उधर बहू और बेटा भी ट्रेन पकड़ लिए हैं। कल रात तक घर पहुंच जाएंगे। सुबह ददा अपना झोला कान्हें पर धरे आईसीयू के सामने कांच से चिपक कर अपने लाल प्रदीप को देखने का और पहचानने का लाख प्रयास करते रहे पर परिणाम शून्य ही रहा। वहां इतने बेड पर मरीज हैं और सबको पूरा इक्वीपमेंट लगा हुआ है कि पहचान पाना मुश्किल है। धीरे-धीरे समय बीतता गया बहत्तर घंटे भी बीत गए। दोपहर में डॉक्टर ने ददा से कहा। अब आपके बच्चे को कुछ नहीं होगा। हां, दवा बहुत लंबी चलेगी।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)