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मुंबई का माफियानामा : मौत के साए मंडराए…

विवेक अग्रवाल

हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।

वह दिन ही ऐसा था। मेरे सिर पर मौत के घने काले बादल छा चुके थे। जनसत्ता में खबर छपी थी, फ्लायर… आठ कॉलम… पहला पृष्ठ – ‘दाऊद गिरफ्तार – मेमन की हत्या’। इस खबर ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया। इसने दाऊद को नाराज और शकील को उद्वेलित कर दिया।
इस खबर के साथ खबरनवीस का नाम न था, महज ‘जनसत्ता संवाददाता’ लिखा था। साफ था – ‘माफिया की खबर’ जनसत्ता का अपराध संवाददाता विवेक अग्रवाल।’ बस, फतवा जारी हो गया।
उस सुबह पड़ोसी का फोन बजा। एक ‘खैरख्वाह’ ने खबर दी कि छापे में गलत खबर छापने के कारण ‘गेम का ऑर्डर’ हुआ है। जिस हालत में था, उसी में बाहर भागा। जनसत्ता खरीदा। पहल सफे की खबर देखकर चौंक गया। कहूं कि बुरी तरह दिल धड़क गया तो अतिशयोक्ति न होगी।
उस खबर में पहले छह पैराग्राफ किसी और ने लिखे थे, जिसका लब्बोलुबाब था कि दाऊद को इंटरपोल ने धर दबोचा है, यूरोप के किसी अनजान देश में, अनजान ठिकाने पर ले गए हैं, टाइगर मेमन की हत्या हो गई है। मैं वापस घर आया। महज पांच मिनट में तैयार होकर चर्चगेट के लिए गोरेगांव से लोकल पकड़ी और एक्सप्रेस टॉवर की दूसरी मंजिल में पहुंचा।
बीती रात जितनी ‘कॉपी’ लिखी, संपादित, टाइपप्रूफ हुई थीं, उनके बंडल निकाले तो इस नामुराद खबर की हस्तलिखित प्रति मिली। लेखनी ने चुगली कर दी कि संवाददाता कौन है। मैं गुस्से और क्षोभ से भर उठा। इस खबर का लगभग पूरे पृष्ठ का बैकग्राउंडर, दाऊद और टाइगर के ‘जीवन चरित’ से ‘९३ बमकांड का इतिहास’ जिद करके बीती रात मुझसे स्थानीय संपादक ने लिखवाया था ताकि इस झूठी और ‘प्लांटेड’ खबर में ‘पैडिंग’ हो सके। अब एक झूठी खबर के कारण में खतरे में था। ‘डी’ कंपनी नाराज थी और असली संवाददाता के नाम से अनजान भी।
अब मैंने कंप्यूटर का रुख किया। ‘नेशनल नेटवर्क’ फोल्डर में देखा तो चंडीगढ़, दिल्ली, कोलकाता संस्करणों में वह नाम भी था, जिसने खबर लिखी थी।
एक लंबी श्वास, ओओओओहहहह….अब सब ठीक हो गया।
उन दिनों ‘डी’ कंपनी का एक ‘पीआरओ’ मोहम्मद अली रोड पर एक ट्रेवल कंपनी में अलसुबह पहुंचता था। उसका काम था कि मुंबई माफिया से संबंधित तमाम खबरों की कतरनें काटे, अखबार के नाम व तारीख के साथ कागज पर लिखकर कतरन चिपकाए, जीरॉक्स करे, फिर कराची पैâक्स करे। कराची में दाऊद और शकील हर खबर पढ़ते और उस दिन की योजना बनाते। उसी पीआरओ को मैंने बताया कि बाकी संस्करणों पर भी नजर डाले। आधे घंटे बाद फोन आया कि ‘उस रिपोर्टर का गेम’ होगा। अब तक मेरे पास सूचना आ चुकी थी कि एक अंग्रेजी, मराठी और गुजराती अखबार में भी पांच-दस पंक्तियों में छोटी-छोटी खबर पांचवें-सातवें पृष्ठ पर छपी है। ये खबरें बीती शाम गृह मंत्रालय के एक शातिर दिमाग आईपीएस अफसर (जो तब सचिव थे) की देन थी। उन्होंने यह खबर ‘प्लांट’ कर ‘डी-कंपनी की हलचल’ हासिल करने की चाल चली थी।
हमारे अखबार के अतिउत्साही पत्रकार महोदय अपनी समाजवादी राजनीतिक बीट के बाहर की यह भारी-भरकम एक्सक्लूसिव पाकर बौरा गए थे। मेरे सामने बैठकर ही वे खबर लिखते रहे। उन्हें लगा कि अगर मुझसे खबर पुख्ता तौर पर जांचने के लिए कहेंगे तो हो सकता है कि लीक हो जाए या उनके साथ मुझे नाम साझा करना पड़ेगा। स्थानीय संपादक और मुख्य संपादक के साथ बंद कमरे में हुई बैठक में तय हुआ कि खबर खास तरह से छपेगी… सो छपी।
यह जानकर कि क्या गलती हुई है, इन वरिष्ठ पत्रकार महोदय का दिल बैठ गया। एक माह तक डर के मारे घर के बाहर कदम न धरा। इतने फोन किए कि बिल १० हजार रुपए के ऊपर जा पहुंचा। वो भी पैसे न भरने के कारण कट गया। बिल बाद में एक सपा नेता ने भरा, जिसे कुछ महीनों बाद बांद्रा में नाना कंपनी ने दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया।
वह तो समय पर हर कड़ी एक से दूसरे के साथ जुड़ती गई या कहें कि मेरी कोशिशों से जुड़ती गई। ‘ऊपर’ समझाइश का असर हुआ, उन्हें बताया कि किस तरह एक शरारती आईपीएस ने एक पत्रकार का इस्तेमाल कर लिया, जिसे अपराध जगत की जानकारी न थी, वे समझ गए… उन्हें अपनी जल्दबाजी पर अफसोस भी था कि मेरे गेम का आदेश बिना जांच के निकाल दिया था। खैर, किसी पर कोई आंच न आई। आखिरकार, ‘कंपनी’ भी इतने बड़े पुलिस अधिकारी को ‘टपका’ कर खुद के खात्मे का बीज तो नहीं ही बो सकती थी।
गलती किसी की, भुगतना किसी और को पड़ता, बच गए भाई… बच गए-
‘अंत भला, तो सब भला।’

(लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)

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