विवेक अग्रवाल
हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।
उसका नाम था केके, बिल्कुल फिल्मों की तरह। पहले ये नाम तस्करों और गुंडों का फिल्मों में खूब रखा जाता था। यह केके भी मुंबई माफिया में खूब शोहरत रखता था। इस केके का असली नाम था हाजी पीर हनीफ कापड़िया।
१६ अगस्त १९९० को वह विदेशी मुद्रा के साथ रंगे हाथों पकड़ा गया। उसने पूछताछ में बताया कि २० करोड़ रुपए का अवैध विदेशी मुद्रा का कारोबार कर चुका है। अफसरान कहते हैं कि इतनी रकम की स्वीकारोक्ति कर रहा है तो कम से कम १० गुना काम उसने किया होगा।
पुलिस ने केके के बताने पर उसके सहयोगी इम्तियाज को निशानपाड़ा, डोंगरी से विदशी मुद्रा के जखीरे समेत धर दबोचा। यह रकम केके के नाम पर ही उसके पास रखी हुई थी। कापड़िया नगर में उसके घर पर छापा मारा तो सफेद मारूती कार एमआईएफ ४३ बरामद हुई। उसके घर पर विदेशी मुद्रा और इलेक्ट्रॉनिक्स भरा था। यह कार कस्टम्स की मरीन एंड प्रिवेंटिव िंवग ने जब्त कर ली क्योंकि कुख्यात तस्करी मोहम्मद अली उर्फ ममद्या इसी कार से एक कस्टम्स अधिकारी की कनपटी पर पिस्तौल लगा कर धमकाने के बाद फरार होने के आरोप दर्ज थे। यह मामला कस्टम्स में सीआईयू/टू२९/९० नंबर से दर्ज है।
केके बड़ा शातिर था। उसने कस्टम्स अफसरान को साथ मिला रखा था। वह विमानों से ही सोना-हीरे और विदेशी मुद्रा का कारोबार करता था। इस धंधे में उसने खूब कमाया तो काले कारोबार की आड़ के लिए कंटेनर का काम शुरू किया, फिर रसायनों के धंधे में कूदा। फिर उसने जूता बनाने का कारखाना लगाया, फिर आयात-निर्यात भी करने लगा।
केके का नाम और काम हांगकांग, दुबई, बैंकॉक में खूब था। इन देशों और भारत के बीच काले कारोबार से हासिल अकूत काली कमाई की धुलाई वैध कारोबार से करता था।
कस्टम्स एवं पुलिस अधिकारियों का कहना था कि तस्करी व हवाला की कमाई तथा रकम की सुरक्षित आवाजाही के लिए केके ने तमाम कारोबार शुरू किए। अपने कंटेनरों में जूतों के डिब्बों या रसायन ड्रमों में छुपा कर कितने डॉलर, हीरे, सोना, चांदी लाता या भेजता, लेकिन किसी को पता नहीं चलता। यही तो था ‘केके का मायाजाल।’
३० दिसंबर १९९७ को बांद्रा के लिंकिंग रोड पर हवाला के इस बड़े खिलाड़ी की सरेराह हत्या हो गई। सारी शातिराना हरकतें और कमाई पीछे ही धरी रह गर्इं।
स्याह सायों के संसार में ये मसल बड़ी चलन में है-
‘कितना कमा लो, मजा वो लोग मारेंगा, जिनके पास पैसा जमा होंएंगा, तुमेरे कूं तो गोलीच खाने का ए, या तो साब लोग का, नर्इं तो दुश्मन का’
(लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)