मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक :  न्यायिक प्रणाली की धज्जियां उड़ाता बुलडोजर न्याय!

सम-सामयिक :  न्यायिक प्रणाली की धज्जियां उड़ाता बुलडोजर न्याय!

डॉ. अनिता राठौर

जिस समय सुप्रीम कोर्ट ‘बुलडोजर न्याय’ को असंवैधानिक घोषित करते हुए उस पर प्रतिबंध लगा रहा था और अवैध निर्माणों को गिराने के लिए दिशा-निर्देश जारी कर रहा था। ठीक उसी वक्त नई दिल्ली से लगभग ३०२ किमी दूर पीलीभीत के गांव तिल्ची में उत्तर प्रदेश का राजस्व प्रशासन ग्राम प्रधान जेनब बेगम के मकान व दुकानों पर बुलडोजर चला रहा था, जिससे ग्राम प्रधान का परिवार तो बेघर हुआ ही। साथ ही जिन लोगों ने दुकानें किराए पर ले रखी थीं, उनका कारोबार भी बंद हो गया। जबकि यह मामला (जिसके बारे में प्रशासन का कहना है कि निर्माण आरक्षित ग्राम पंचायत की भूमि पर अवैध रूप से हुआ था और ग्राम प्रधान का कहना है कि उनका परिवार १९६५ से इस भूमि पर वैध रूप से रह रहा था) फिलहाल इलाहाबाद हाई कोर्ट में विचाराधीन है। इसलिए यह प्रश्न प्रासंगिक है कि सुप्रीम कोर्ट के ‘बुलडोजर न्याय’ पर प्रतिबंध और इस असंवैधानिक कार्यवाही के लिए अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने के बावजूद अधिकारी अदालतों से डरेंगे या सत्तारूढ़ नेताओं से? हमें नहीं मालूम।
सुप्रीम कोर्ट ने १३ नवंबर २०२४ को ‘बुलडोजर न्याय’ के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर जुर्माना परिभाषित करके उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, असम, गुजरात, झारखंड, दिल्ली आदि की राज्य सरकारों की निर्लज्ज अराजकता को ध्वस्त करने का प्रयास किया है, जोकि सर्वोच्च न्यायालय के इन शब्दों के कारण ही अच्छा व स्वीकार्य कदम है, ‘अगर कानून का शासन गायब रहेगा तो कोई जवाबदेही नहीं रहेगी। सत्ता का दुरुपयोग होगा और भ्रष्टाचार होगा। हम कानून से शासित होने की बजाय सत्ता में बैठे लोगों के पागलपन और सनक से शासित होने लगेंगे।’ सुप्रीम कोर्ट ने मुख्यत: तीन बिंदुओं पर बल दिया। एक, कानून के शासन की अनिवार्यता पर कि इससे ही ‘राज्य शक्ति के मनमाने प्रयोग के विरुद्ध सुरक्षा मिलती है’। सबसे महत्वपूर्ण है ‘यह अंतर करना कि सत्ता का उपयोग नेकनीयत से किया जा रहा है या बद नीयत से दुरुपयोग’। दो, शक्ति के विभाजन पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब सरकारें अपनी मनमर्जी से किसी व्यक्ति को ‘दोषी’ घोषित करती हैं तो वह न्यायपालिका के कार्यों में दखल दे रही होती हैं इसलिए राज्य सरकारों को यह उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
तीन, सुप्रीम कोर्ट ने एकदम सही एहसास किया कि मकान गिराने के सिलसिले में केवल दिशा-निर्देश जारी करना पर्याप्त नहीं होगा, इसलिए उसने ‘तोड़ी गई संपत्तियों की बहाली को शामिल किया… अधिकारियों के व्यक्तिगत खर्च पर नुकसान की भरपाई के अलावा’, ताकि ‘अधिकारियों को मनमर्जी करने की कोई गुंजाइश ही न रहे’। ‘बुलडोजर न्याय’ पर अखिल भारतीय प्रतिबंध लगाते हुए न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायाधीश केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने कहा कि एक नागरिक का घर केवल इसलिए तोड़ना कि वह आरोपी है या दोषी भी है, वह भी कानून द्वारा निर्धारित उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना ‘पूर्णत: असंवैधानिक’ होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अवैध निर्माणों को गिराने के लिए विस्तृत प्रक्रिया जारी की और कवि प्रदीप की पंक्तियों (अपना घर हो, अपना आंगन हो, इस ख्वाब में हर कोई जीता है। इंसान के दिल की ये चाहत है कि एक घर का सपना कभी न छूटे।) को कोट करते हुए आदेश दिया कि राज्य घर गिराकर किसी परिवार के शेल्टर का अधिकार केवल इसलिए नहीं छीन सकता कि उसका एक सदस्य गंभीर अपराध में आरोपी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘कार्यकारिणी न्यायाधीश नहीं बन सकती और तय नहीं कर सकती कि आरोपी दोषी है और इसलिए उसकी संपत्तियों को गिराकर उसे सजा दी जाए। इस किस्म की कार्यवाही कार्यकारिणी की सीमाओं का उल्लंघन होंगी। जब एक विशेष स्ट्रक्चर का चयन गिराने के लिए किया जाता है और शेष को स्पर्श तक नहीं किया जाता तो इसमें बदनीयत की बू आने लगती है। बुलडोजर द्वारा बिल्डिंग को गिराने वाला भयावह नजारा उस अराजक राज्य के मामलों की याद दिलाता है, जिसमें ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का चलन था। अगर विध्वंस की अनुमति केवल इस आधार पर दी जाएगी कि एक व्यक्ति आरोपी है या दोषी तो यह पूरे परिवार को सामूहिक सजा देना होगा।’ सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि सामूहिक सजा के लिए कोई स्थान नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि तथाकथित आरोपी या दोषी का जब त्वरित-न्याय के नाम पर घर गिराया जाता है तो वह एक परिवार के लिए सामूहिक सजा ही होती है। अवैध निर्माणों को गिराने के लिए भी पर्याप्त प्रक्रियाएं उपलब्ध हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अधिक बारीक और अखिल-भारतीय बना दिया है।
किसी अवैध निर्माण को तोड़ने के लिए भी उसके मालिक को कार्यवाही से १५ दिन पहले नोटिस देना होगा, जो दोनों रजिस्टर्ड पोस्ट से और संपत्ति की बाहरी दीवारों पर चस्पा करने के जरिए दिया जाएगा। साथ ही नोटिस की जानकारी संबंधित कलेक्टर/डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को भी भेजी जाएगी, जो नगरपालिका अधिकारियों से कम्युनिकेट करने के लिए नोडल अधिकारी तय करेंगे। समय-अवधि उस समय से गिनी जायेगी, जब मालिक नोटिस प्राप्त करेगा। इन दिशा-निर्देशों का उल्लंघन अदालत की अवमानना प्रक्रिया को आमंत्रित तो करेगा ही संबंधित अधिकारियों पर मुकदमा भी चलेगा। अगर तोड़फोड़ अदालत के आदेशों के विपरीत पाई गई, तो उसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों को अपने खर्च पर तोड़ी गई प्रॉपर्टी बहाल करनी होगी और नुकसान की भरपाई भी करनी होगी।
दरअसल, महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि सत्तारूढ़ नेताओं के पास ‘बुलडोजर न्याय’ देने का कभी वैध अधिकार और कारण था ही नहीं। ‘गलती’ की तो कल्पना भी की जा सकती है, जिसे विकृत राजनीति कभी न्यायोचित न ठहरा सकती है और न समझा सकती है। मसलन, उदयपुर में दो स्कूली छात्रों के बीच झगड़ा हुआ जैसा कि बच्चों में अक्सर हो जाता है और एक के घर पर बुलडोजर चला दिया गया, जो कि उसके परिवार का भी नहीं था बल्कि किराए पर था। जाहिर है कि उदयपुर प्रशासन ने दोनों छात्रों को बच्चों के रूप में नहीं देखा बल्कि अपने विकृत नजरिए से एक को दोषी और दूसरे को पीड़ित के रूप में देखा। क्या सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश और इन दिशा-निर्देशों को सरकारें गंभीरता से लेंगी? प्रशासनों में दब्बू या डरे हुए या दोनों प्रकार के अधिकारी भरे हुए होते हैं। सवाल यह है कि वह किससे अधिक डरेंगे, अदालतों से या राजनीतिक बोसों से? धमकियां देना व डराना सरकारों की कमजोरी का संकेत होता है, लेकिन जब सियासत करनी होती है- हरियाणा के नूह में राज्य सरकार ने जो लगभग ८०० मकान गिराए वह एक समुदाय विशेष के थे तो उसे स्ट्रेटेजी में गिना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों से ‘बुलडोजर न्याय’ पर पूर्णत: विराम लगना कठिन प्रतीत होता है। सरकारी मशीनरी में जवाबदेही एक ऐसा गुण है, जो सबसे अधिक अस्पष्ट है। जब व्यक्तिगत आर्थिक नुकसान शामिल होता है तो जवाबदेही हॉकी में गेंद की तरह पास की जाने लगती है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश बहुत शानदार है। फिलहाल तो राज्य सरकारों ने इसका स्वागत किया है, अब देखना शेष यह है कि आगे वह इस सिलसिले में करती क्या हैं।
(लेखिका शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं)

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