सैयद सलमान
मुंबई
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव २०२४ के नतीजे चौंकानेवाले रहे। महायुति की भारी जीत और महाविकास आघाड़ी की अप्रत्याशित हार ने राजनीतिक विश्लेषकों सहित महाराष्ट्र के मतदाताओं को भी आश्चर्य में डाल दिया है। चुनाव परिणामों ने मुस्लिम मतदाताओं के रुख और राज्य की राजनीति में फतवेबाजी के प्रभाव के बारे में एक महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है। चुनाव प्रचार के दौरान मौलाना सज्जाद नोमानी जैसे धार्मिक नेताओं और कई मौलवियों ने मुस्लिम समाज को महाविकास आघाड़ी के पक्ष में वोट देने की अपील की। इसे ‘वोट जिहाद’ और ‘फतवेबाजी’ का नाम देकर भाजपा ने मतदाताओं में भ्रम पैâलाया। सवाल उन मौलवियों से भी पूछा जाना चाहिए कि आखिर अच्छे भले चुनाव के दौरान भाजपा की पिच पर जाकर खेलने के लिए उन्हें किसने प्रेरित किया? किस सौदेबाजी के तहत ऐसे बयान जारी किए गए जिसका लाभ भाजपा को ही मिलना था। हालांकि, यह कहना भी सही है कि इस अपील का असर सीमित रहा, लेकिन भाजपा ने एक नेरेटिव सेट कर दिया कि मुसलमान एकजुट हो रहे हैं, लेकिन चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया कि मुस्लिम मतदाता एकजुट होकर वोट नहीं डाल सके, जिससे उनके वोट बंट गए और इसका फायदा भाजपा को मिला। सियासी विश्लेषकों का मानना है कि मुस्लिम वोटरों का बंटवारा और कई सीटों पर एकाधिक उम्मीदवारों की मौजूदगी ने भी वोटों को विभाजित किया, जिससे महायुति को लाभ मिला।
जहां तक मुस्लिम उम्मीदवारों के जीतने की बात है तो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में कुल १० मुस्लिम उम्मीदवार विजयी हुए हैं। यह संख्या पिछले चुनावों, २०१४ और २०१९ के समान ही है। विजेताओं में से तीन कांग्रेस से, दो एनसीपी (अजीत पवार गुट) से, दो समाजवादी पार्टी से, एक शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) से, एक एमआईएम से और एक शिवसेना (शिंदे गुट) से हैं। मुंबई की वर्सोवा सीट पर शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के हारून खान ने सभी सियासी गुणा-भाग को धता बताते हुए ऐतिहासिक जीत दर्ज की। वैसे भाजपा ने इस चुनाव में हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने की दिशा में कई प्रयोग और प्रयास किए। चुनाव प्रचार के दौरान ‘वोट धर्म युद्ध’, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक हैं तो सेफ हैं’ जैसे नारों ने हिंदू मतदाताओं को लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। व्यावहारिक रूप से देखें तो भाजपा की राजनीति का मुख्य आधार आज भी जाति और धर्म ही है। देश की अन्य कई राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता भी अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए जाति और धर्म का खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं। चुनावी रणनीति तैयार करने में कमोबेश हर पार्टी धर्म और जाति से जुड़े समीकरणों को संतुलित करने पर ध्यान देती है। जाति और धार्मिक भावनाओं को उभारकर राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति कोई नई बात नहीं है। संविधान लागू होने के बाद से लेकर आज तक चुनावों में किसी न किसी रूप में जाति और धर्म के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी और ध्रुवीकरण का इतिहास रहा है। इस बार भी चुनाव प्रचार के दौरान ध्रुवीकरण के लिए राजनीतिक दलों द्वारा मुसलमानों को उम्मीदवारी नहीं देने, मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बयान देने और वक्फ संशोधन विधेयक जैसे मुद्दे जोर-शोर से उठाए गए। कहना गलत नहीं होगा कि मूलभूत मुद्दे इस शोर में कहीं खो जाते हैं।
इसलिए मुसलमानों को जाति और धर्म के आधार पर वोट देने के बजाय अब रोजगार, शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उनका यह दृष्टिकोण न केवल व्यक्तिगत और सामुदायिक विकास को बढ़ावा देगा, बल्कि समाज में समरसता और एकता को भी मजबूत करेगा। मुस्लिम समाज के लिए रोजगार की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। इस से उन्हें न केवल आर्थिक स्थिरता मिल सकती है, बल्कि सामाजिक सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। जब समाज के लोग अच्छी नौकरियों में कार्यरत होंगे तो वे अपने परिवार और समाज का बेहतर प्रतिनिधित्व कर पाएंगे। इसके लिए शिक्षित होना जरूरी है। शिक्षा का स्तर सीधे तौर पर विकास से जुड़ा होता है। एक शिक्षित समाज अधिक जागरूक और सक्षम होता है। मुसलमानों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे आने की आवश्यकता है, ताकि वे विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा कर सकें और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकें। वहीं स्वास्थ्य, पानी, बिजली, और परिवहन जैसी मूलभूत सुविधाएं किसी भी समुदाय के विकास के लिए आवश्यक हैं इसलिए इन मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित करना जरूरी है। समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए मुसलमानों को चाहिए कि वे अपने वोटिंग पैटर्न को बदलें और उन मुद्दों पर ध्यान दें, जो उनके जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। जब समाज एकजुट होकर विकास के मुद्दों पर वोट करेगा तो यह न केवल उनके लिए, बल्कि पूरे देश के लिए लाभकारी होगा।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)