मुख्यपृष्ठस्तंभनिवेश गुरु : एक नई दिशा की तलाश

निवेश गुरु : एक नई दिशा की तलाश

भरतकुमार सोलंकी
मुंबई

आज के समय में जब देश तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है, समाज के विभिन्न वर्गों के सामने वित्तीय अनुशासन और दीर्घकालिक आर्थिक सुरक्षा की चुनौती स्पष्ट दिखाई दे रही है। धार्मिक आयोजनों और सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर बड़ी-बड़ी रकम खर्च करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, लेकिन क्या यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि ये खर्च उन परिवारों और व्यक्तियों की वास्तविक आर्थिक स्थिति से मेल खाते हों? देश के कई समुदायों के लगभग ६०-७० प्रतिशत व्यवसायी आज कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। ऊपर से ये व्यवसायी भले ही स्थिर और समृद्ध दिखें जो करों का भुगतान करते हैं और धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन उनकी वित्तीय जमीनी हकीकत कुछ और है। यह एक गंभीर प्रश्न उठाता है कि क्या समाज के जिम्मेदार नेतृत्व ने इस संकट को दूर करने के लिए कोई ठोस प्रयास किए हैं? पिछले तीन दशकों में जब संपत्तियों और शेयर बाजार में निवेश के सुनहरे अवसर मौजूद थे, क्या उन अवसरों को समुदायों के भीतर पहचानने और उनके लाभ उठाने के लिए जागरूकता फैलाई गई? संपत्ति के मामले में लंबे समय तक सावधानीपूर्वक योजना बनाना क्यों नहीं सिखाया गया? आज की स्थिति यह है कि अनेक परिवारों के पास पर्याप्त लिक्विड पोर्टफोलियो या वित्तीय सुरक्षा का आधार भी नहीं है। क्या यह स्थिति समाज के आर्थिक नेतृत्व और निवेश जागरूकता की कमी को उजागर नहीं करती? एक परिवार को आज सम्मानजनक जीवन जीने के लिए औसतन एक लाख रुपए मासिक आय की आवश्यकता होती है। यदि इसे ६ प्रतिशत वार्षिक रिटर्न दर से आंका जाए, तो प्रत्येक परिवार के पास न्यूनतम दो करोड़ रुपए का लिक्विड पोर्टफोलियो होना चाहिए। परंतु वास्तविकता यह है कि इस स्तर की आर्थिक सुरक्षा अधिकांश परिवारों के पास नहीं है। इसके बावजूद वे अपने सीमित संसाधनों को धार्मिक आयोजनों और चढ़ावे में खर्च कर देते हैं। सवाल यह है कि क्या धार्मिक आयोजनों और सामाजिक प्रतिष्ठा की आड़ में आर्थिक अनुशासन की अनदेखी की जा रही है? यहां धर्मादा आयुक्त और देवस्थान विभाग की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्या इन संस्थाओं के पास कोई ऐसा तंत्र है, जो धार्मिक चढ़ावे को पारदर्शी बनाकर इसे आर्थिक स्थिरता और समाज कल्याण के साथ जोड़ सके? क्या यह संभव है कि इन संस्थानों द्वारा ऐसे नियम बनाए जाएं, जिनके तहत केवल आर्थिक रूप से कर्ज-मुक्त और स्वनियोजित व्यक्ति ही बड़े चढ़ावों में भाग ले सकें? इसके अलावा, क्या यह समय नहीं है कि समाज के नेता और प्रतिष्ठित व्यवसायी एक मंच पर आकर इन वित्तीय मुद्दों पर खुलकर चर्चा करें? क्या वे इस दिशा में सहमत हो सकते हैं कि समुदायों के भीतर निवेश जागरूकता और वित्तीय प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया जाए? जब पारंपरिक व्यवसायों में बदलाव और वैश्विक अर्थव्यवस्था नई दिशाएं ले रही हैं, तो क्या यह समाज की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह अपनी नई पीढ़ी को इन परिवर्तनों के लिए तैयार करे? अंतत: यह जरूरी है कि धार्मिक आयोजनों के नाम पर आर्थिक प्रदर्शन को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाई जाए। यह समय आत्ममंथन का है, ऐसे प्रश्न पूछने और उत्तर खोजने का जो न केवल समाज को दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता की ओर ले जाएं, बल्कि इसे आत्मनिर्भर और सशक्त भी बनाएं।
(लेखक आर्थिक निवेश मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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