डॉ. अनिता राठौर
भारत के चुनाव आयोग ने इस चक्र के विधानसभा चुनावों की अधिकारिक घोषणा तो १५ अक्टूबर २०२४ को की थी, लेकिन खनिज-संपन्न और आदिवासी बहुल झारखंड में चुनाव अभियान २८ जून को ही आरंभ हो गया था, जब हेमंत सोरेन पांच माह जेल में रहने के बाद जमानत पर बाहर आए थे। हेमंत सोरेन को भ्रष्टाचार के आरोपों में सलाखों के पीछे भेजा गया था और इस कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद से भी इस्तीफा देना पड़ा था। हेमंत सोरेन ने इन आरोपों का खंडन किया था और अदालत ने भी उन्हें जमानत देते हुए संकेत दिया था कि उन पर भ्रष्टाचार का मामला नहीं बनता है। इस वजह से झारखंड, विशेषकर आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उनके पक्ष में हमदर्दी की लहर थी, जो तीन मुख्य कारणों से अधिक मजबूत होती चली गई। एक, बीजेपी ने चंपई सोरेन (जो हेमंत सोरेन की जेल यात्रा के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री थे) के जरिए झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) को तोड़ने की कोशिश की, जिसमें वह असफल रही और केवल चंपई सोरेन ही उनके साथ गए, लेकिन जिस तरह से बीजेपी के मंचों पर चंपई सोरेन के साथ व्यवहार हुआ उससे आदिवासियों ने खुद को अपमानित महसूस किया। दूसरा यह कि आदिवासी पट्टी में बीजेपी ने बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे के जरिए अपना पूरा अभियान सांप्रदायिक धुव्रीकरण पर केंद्रित किया, जोकि मतदाताओं के गले नहीं उतरा, क्योंकि देश की सीमाओं पर तथाकथित घुसपैठ रोकने का काम केंद्र सरकार का है न कि राज्य सरकार का।
तीसरा कारण प्रकृति-पूजा करनेवाले आदिवासियों की प्रमुख मांग अपने सरना धर्म व संस्कृति की अलग पहचान की थी, जिसे वह हिंदू व ईसाई धर्मों से अलग मानते हैं। जेएमएम सरना धर्म के पक्ष में विधानसभा में प्रस्ताव ला चुकी है। नतीजतन, बीजेपी को आदिवासियों के लिए आरक्षित २८ में से २७ सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा। तीसरा यह कि हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन इस चुनाव अभियान में प्रभावी स्टार प्रचारक के रूप में उभरीं। दोनों पति पत्नी ने २०० से अधिक रैलियां कीं, जिनमें वह अपनी कल्याणकारी योजनाओं पर बल दे रहे थे। मैय्या सम्मान योजना, जिसके तहत १८ से ५० वर्ष की गरीब महिलाओं को सीधे १,००० रुपए का लाभ दिया जाता है, ४० लाख परिवारों का बिजली का बिल माफ करना, जोकि लगभग ३,५०० करोड़ रुपए का बैठता है, झारखंड के ४० लाख लोगों को १,००० रुपए की पेंशन। इन कारणों के चलते झारखंड में हर बार नई पार्टी या गठबंधन की सरकार बनने का ट्रेंड टूटा। जेएमएम के नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ इंडिया गठबंधन ने लगातार दूसरी बार राज्य में सत्ता हासिल की और उसका प्रदर्शन इस बार पहले से बेहतर रहा।
पांच साल पहले उसने कुल ८१ सीटों में से ४७ पर जीत दर्ज की थी, लेकिन इस बार उसे ५६ सीटों पर कामयाबी मिली। इनमें से जेएमएम को ३४ (जोकि राज्य में उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है), कांग्रेस को १६, राजद को ४ और सीपीआई(एमएल) लिबरेशन को २ सीटें हासिल हुर्इं, जबकि एनडीए में बीजेपी को २१, आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) व जनता दल(यू) को १-१ सीट मिली। जहां तक अन्य राज्यों में उप-चुनावों के नतीजों की बात है तो जैसा कि होता आया है, सभी जगह वही पार्टी या गठबंधन लाभ की स्थिति में रहा जोकि संबंधित राज्य में सत्तारूढ़ है।
उत्तर प्रदेश में एनडीए ने ९ में से ७ सीटें जीतीं, शेष दो सपा की झोली में गर्इं। राजस्थान में ७ में से ५ सीटें बीजेपी को मिलीं, जबकि कांग्रेस व बीएपी को १-१ सीट मिली। पंजाब में ४ में से ३ सीट आप के खाते में आयीं और चौथी सीट पर कांग्रेस विजयी रही। उत्तर पूर्व के तीन राज्यों- असम, मणिपुर व मेघालय की ८ सीटों पर उप-चुनाव हुए जो सभी सत्तारूढ़ एनडीए के खाते में गर्इं। ध्यान रहे कि सिक्किम में दो विधान सभा सीटों पर उप-चुनाव होने थे, लेकिन उन्हें अक्टूबर में सत्तारूढ़ सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा ने निर्विरोध जीत लिया था। पश्चिम बंगाल में ६ विधानसभा सीटों पर उप-चुनाव हुए और सभी में सत्तारूढ़ तृणमूल विजयी हुई। कर्नाटक में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस ने सभी तीनों सीटों पर जीत दर्ज की, जिन पर उपचुनाव हुए थे। बिहार में भी चारों सीट सत्तारूढ़ गठबंधन के खाते में गर्इं। इन विधानसभा सीटों के अतिरिक्त दो लोकसभा सीटों पर भी उप-चुनाव हुए थे। केरल की वायनाड लोकसभा सीट को कांग्रेस की प्रियंका गांधी ने जीता और महाराष्ट्र की नांदेड़ लोकसभा सीट को भी कांग्रेस के ही रविंद्र चव्हाण ने जीता।
बहरहाल, झारखंड में इंडिया गठबंधन की विजय ने इस बात पर मुहर लगा दी है कि देश में हेमंत सोरेन सबसे बड़े आदिवासी नेता हैं। हाई-वोल्टेज अभियान में उन्होंने सलाखों के पीछे अपने समय को आदिवासी अस्मिता से जोड़ा। उन्होंने बीजेपी पर आरोप लगाया कि उसने धरतीपुत्र को झूठे आरोपों में केवल जेल ही नहीं भेजा, बल्कि राज्य के गरीबों की सेवा करने से भी रोका। हेमंत सोरेन ने राज्य में आदिवासी व गैर-आदिवासी फाल्टलाइन को भी पाटा, इस बात पर बल देते हुए कि राज्य में संपूर्ण विकास की आवश्यकता है इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि जब चुनाव परिणामों की घोषणा हुई तो इंडिया गठबंधन ने २९ गैर-आदिवासी सीटों पर भी जीत दर्ज की, जिनमें ९ में से ५ अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें भी हैं, लेकिन इस बार जो दो राज्यों- महाराष्ट्र व झारखंड की विधानसभाओं के लिए चुनाव हुए, उनमें एक चिंताजनक ट्रेंड भी सामने आया। वह यह था कि पैसा बोलता है। वैâश काम करता है। जब सरकार की वैâश ट्रांसफर योजनाएं भारी भरकम जीत सुनिश्चित कर सकती हैं तो फिर नेताओं व पार्टियों के लिए जॉब्स क्रिएट करने व बेरोजगारी कम करने की जरूरत कहां है। अब उम्मीद की जा सकती है कि सभी राजनीतिक पार्टियां वैâश ट्रांसफर योजनाओं पर ही बल देंगी। दरअसल, वैâश ट्रांसफर योजना तो चंद सप्ताह में ही काम कर गई। अगस्त में जेएमएम ने महिलाओं को प्रति माह १,००० रुपए देने की घोषणा की थी। बीजेपी ने अक्टूबर में इस समूह को २,१०० रुपए देने की बात कही। सोरेन सरकार ने कहा कि वह दिसंबर से २,५०० रुपए देगी। इस प्रकार की बंदरबांट वास्तव में चिंता का विषय है, जैसा कि हर नेता जानता है। अनुभवी नेताओं ने इसके खर्च को लाल झंडी भी दिखाई- महाराष्ट्र में ‘लाड़की बहना’ का बजट ४६ हजार करोड़ रुपए है २.४ करोड़ महिलाओं के लिए, जिसमें वृद्धि ही होगी, जब उसे २,१०० रुपए प्रति माह कर दिया जाएगा।
यह पैसा कहां से आएगा? यह चुनौती का केवल एक हिस्सा है। अर्थव्यवस्था पर इसका गहरा व स्थायी प्रभाव पड़ेगा। जाहिर है जब कैश ट्रांसफर से अच्छे चुनावी नतीजे मिल रहे हों तो नेताओं के लिए जॉब्स क्रिएट करने की जरुरत या प्राथमिकता कहां रह जाती है। जॉबलेस ग्रोथ और जीडीपी पिछले १५ साल से एक ही जगह रुकी हुई है। यह सिर्फ आधी तस्वीर है। आधी न दिखाई देने वाली तस्वीर बेरोजगार कार्यबल है, जो प्रति वर्ष ७-८ मिलियन की दर से बढ़ रहा है। राजनीतिक दलों ने लोगों की नब्ज पकड़ी हुई है, उनके घोषणा पत्र आय संकट का उल्लेख तो करते हैं, लेकिन सरकारें जॉब अवसर उत्पन्न करने में नाकाम रहती हैं क्योंकि कैश हैंडआउट से काम चल रहा है। यह चुनावी जीत का अच्छा फॉर्मूला है, लेकिन मध्य व निम्न मध्यवर्ग ऐसे जाल में फंसते जा रहे हैं, जहां उनके लिए कोई आय सुरक्षा नहीं है।
(लेखिका शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं)