द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई
महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों पर सब हैरान हैं। जो जीता, वह भी, जो हारा, वह भी। वोट देनेवाली जनता हैरान है और यकीन मानिए भले ही भक्त और लाभार्थी ऊपरी तौर पर कुछ भी कहें, हैरान तो वे भी हैं। इसीलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से ऐसे नतीजे कैसे निकले।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक विवादास्पद विषय बन गई है। दिलचस्प बात यह है कि कई देशों ने एक बार ईवीएम को अपनाने के बाद या तो उनका उपयोग बंद कर दिया है या पारंपरिक पेपर बैलट के साथ बने रहने का विकल्प चुना है।
किसी भी लोकतांत्रिक चुनाव की पहचान पारदर्शिता है और मतदाताओं को प्रक्रिया व परिणामों पर पूरा भरोसा होना चाहिए। पारंपरिक मतदान प्रणालियों में, प्रक्रिया के हर चरण-मतपत्र की छपाई से लेकर गिनती तक की जांच और ऑडिट किया जा सकता है। इसके विपरीत ईवीएम जटिल इलेक्ट्रॉनिक उपकरण हैं, जो ‘ब्लैक बॉक्स’ की तरह काम करते हैं। मतदाता स्वतंत्र रूप से यह सत्यापित नहीं कर सकते हैं कि उनका वोट सही तरीके से दर्ज किया गया था या गिना गया था।
तमाम आलोचनाओं के बाद वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) शुरू हुआ, लेकिन यह भी समस्या को पूरी तरह से हल नहीं करता है, क्योंकि विभिन्न मामलों में इलेक्ट्रॉनिक और पेपर रिकॉर्ड के बीच विसंगतियां देखी गई हैं।
कोई भी तकनीक हैकिंग से सुरक्षित नहीं है और ईवीएम कोई अपवाद नहीं है। साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों ने कई बार यह दिखाया है कि वैâसे ईवीएम के नतीजों को बदलने के लिए हेर-फेर किया जा सकता है, जबकि चुनाव आयोग अक्सर तर्क देता है कि ईवीएम बिना इंटरनेट कनेक्शन के स्टैंडअलोन डिवाइस है, लेकिन इससे विनिर्माण, परिवहन या यहां तक कि मतदान केंद्रों पर छेड़छाड़ का जोखिम समाप्त नहीं होता है। २००९ में अमेरिका के प्रिंसटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के एक समूह ने दिखाया कि वैâसे एक ईवीएम को एक मिनट से भी कम समय में हैक किया जा सकता है।
कई लोकतांत्रिक देशों ने पारदर्शिता और सार्वजनिक विश्वसनीयता पर चिंताओं का हवाला देते हुए जानबूझकर ईवीएम को नहीं अपनाने का पैâसला किया। २००९ में जर्मनी के संघीय संवैधानिक न्यायालय ने पैâसला सुनाया कि ईवीएम से जर्मन मूल कानून के तहत पारदर्शिता के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है। नतीजतन, जर्मनी कागज के मतपत्रों पर लौट आया।
कभी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग में अग्रणी रहे नीदरलैंड ने २००७ में ईवीएम का इस्तेमाल बंद कर दिया, जब रिपोर्ट में उनकी मशीनों में कमजोरियों का पता चला। जांच से पता चला कि उपकरणों द्वारा उत्सर्जित संकेतों को दूर से रोका जा सकता है, जिससे मतदाता गोपनीयता भंग होती है।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में लगभग पांच करोड़ यूरो का निवेश करने के बाद, आयरलैंड ने २००९ में उनका उपयोग बंद करने का फैसला किया। व्यापक सार्वजनिक परामर्श और परीक्षण से पता चला कि ईवीएम मतदाताओं के बीच पर्याप्त विश्वास पैदा नहीं कर पाया। ईवीएम से जुड़ी चुनौतियों का सामना करने के बाद कई देशों ने पेपर बैलट का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र और तकनीकी तौर पर सबसे ज्यादा विकसित देश अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव पेपर बैलट से होते हैं। इटली ने धोखाधड़ी और हेर-फेर के जोखिम का हवाला देते हुए लगातार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग को अस्वीकार किया है। इटली पारदर्शिता और सार्वजनिक विश्वास सुनिश्चित करने के लिए विशेष रूप से पेपर बैलट का उपयोग करता है।
इंटरनेट वोटिंग और ईवीएम के साथ प्रयोग करने के बाद नॉर्वे ने २०१४ में उनका उपयोग बंद कर दिया, यह कहते हुए कि वे मतदाता की गोपनीयता और सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते।
भारत की ही तरह वेनेज़ुएला और फिलीपींस जैसे देशों में ईवीएम का उपयोग करके वोटों में हेरा-फेरी के आरोपों ने चुनावों की विश्वसनीयता को धूमिल किया है। इससे लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का विश्वास कम होता है और राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है। ब्राजील में भी दशकों से ईवीएम का उपयोग किया जा रहा है। वहां भी इसका विरोध बढ़ रहा है और आरोप है कि इस प्रणाली में पारदर्शिता का अभाव है। चुनाव परिणामों को लेकर हाल ही में हुए विवादों के कारण प्रक्रिया में विश्वास बहाल करने के लिए वहां भी पेपर बैलट की मांग हो रही है।
ईवीएम भक्त कुल मिलाकर पुराने समय की बूथ वैâप्चरिंग का हवाला देते हैं, जो छिटपुट होती थी। उससे बड़े पैमाने पर नतीजे नहीं बदलते थे। अगर ऐसा होता तो कांग्रेस कभी नहीं हारती और भाजपा उस दौरान कभी नहीं जीतती। आज के दौर में सोशल मीडिया व व्यापक सुरक्षा बंदोबस्त में बूथ वैâप्चरिंग संभव नहीं है। कागजी बैलट भले ही मतगणना में ज्यादा समय लेते हैं, पर ये बेजोड़ पारदर्शिता प्रदान करते हैं। प्रत्येक वोट प्रत्यक्ष, सत्यापन योग्य और ऑडिट करने योग्य होता है। पेपर बैलट की सरलता अशिक्षित वर्ग सहित सभी पृष्ठभूमि के मतदाताओं के लिए आसान होती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए किसी विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है।
इसके अतिरिक्त पेपर बैलट में बड़े पैमाने पर हेर-फेर का जोखिम नहीं होता। एक इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम को हैक करने की तुलना में बड़े पैमाने पर पेपर बैलट के नतीजों को बदलना बहुत मुश्किल है।
अमेरिका, जर्मनी, नीदरलैंड, आयरलैंड जैसे देशों के अनुभव प्रौद्योगिकी में अंधविश्वास रखने के खतरों को उजागर करते हैं। चूंकि दुनियाभर के लोकतंत्र बढ़ती चुनौतियों का सामना कर रहे हैं इसलिए ध्यान उन प्रणालियों पर होना चाहिए, जो जनता के विश्वास को मजबूत करती हैं, न कि उन प्रौद्योगिकियों पर जो संदेह पैदा करती हैं। अब समय आ गया है कि चुनावों में ईवीएम की भूमिका पर पुनर्विचार किया जाए और लोकतंत्र की पवित्रता को अन्य सभी चीजों से ऊपर प्राथमिकता दी जाए।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)