नरेंद्र शर्मा
भारी पड़ा मार्शल लॉ
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यूं सुक येओल ने चौंका देने वाला निर्णय लेते हुए मार्शल लॉ लगाने की घोषणा की और भारी-भरकम हथियारों से लैस फौज से संसद की घेराबंदी करा दी। लेकिन मार्शल लॉ अधिक समय तक लागू न रह सका; क्योंकि दोनों सत्तारूढ़ व विपक्षी दलों के सांसद संसद की दीवारें फांदकर नेशनल असेंबली बिल्डिंग के अंदर पहुंचे और उन्होंने सर्वसम्मति से मार्शल लॉ लगाने के आदेश के विरुद्ध मतदान किया। दक्षिण कोरिया के संविधान के अनुसार, लेजिस्लेचर की अनुमति के बिना मार्शल लॉ नहीं लगाया जा सकता। इसके बाद ४ दिसंबर २०२४ को दक्षिण कोरिया के विपक्ष ने अपने देश के १३वें राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग चलाने का फैसला किया। येओल को उनके पद से हटाने के लिए दो-तिहाई सांसदों और नौ सदस्यों वाली संवैधानिक अदालत के कम से कम छह न्यायाधीशों के समर्थन की आवश्यकता पड़ेगी। महाभियोग चलाने का प्रस्ताव संयुक्त रूप से मुख्य उदार विपक्ष डेमोक्रेटिक पार्टी और पांच छोटे विपक्षी दलों ने पेश किया है, जिस पर जल्द से जल्द ७ दिसंबर २०२४ को मतदान हो सकता है।
दक्षिण कोरिया की जनता असमंजस में है कि मात्र छह घंटे तक कायम रहे मार्शल लॉ को आखिर लाया क्यों गया था? इस बेतुके स्टंट की जरूरत क्या थी? मार्शल लॉ लगाने का सुझाव वरिष्ठ नीति सलाहकार व रक्षामंत्री किम योंग ह्यून ने येओल को दिया था। किम ने अब इस्तीफा देने की पेशकश की है, जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी ने एक अलग मोशन के जरिये उन पर भी महाभियोग चलाने की मुहिम छेड़ी है। तीन सौ सदस्यों वाले संसद में डेमोक्रेटिक पार्टी का बहुमत है, लेकिन महाभियोग मत की स्वीकृति के लिए २०० सांसदों की जरूरत पड़ेगी, जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी व अन्य विपक्षी दलों के कुल मिलाकर १९२ सांसद हैं। अब देखना यह है कि क्या सत्तारूढ़ दल पीपल पॉवर पार्टी के वह १८ सांसद भी विपक्ष के साथ आ सकते हैं या नहीं जिन्होंने मार्शल लॉ के आदेश के विरुद्ध नेशनल असेंबली की दीवार फांदकर मतदान किया था। अनुमान यह है कि वह ‘तानाशाह’ बनने का प्रयास कर रहे येओल के खिलाफ मतदान करेंगे इसलिए डेमोक्रेटिक पार्टी ने येओल से इस्तीफा देने की मांग की है।
लोकतंत्र का उल्लंघन
गौरतलब है कि ३ दिसंबर २०२४ की रात को मार्शल लॉ की घोषणा करने वाले अपने भाषण में येओल ने ‘राज्य-विरोधी’ बलों को नेस्तनाबूद करने की कसम खाई थी और निरंतर डेमोक्रेटिक पार्टी की आलोचना की थी कि वह सरकारी अधिकारियों के खिलाफ महाभियोग चलाना चाहती है। अगर येओल के खिलाफ महाभियोग सफल हो जाता है तो संवैधानिक अदालत के पैâसले तक उनकी सभी संवैधानिक शक्तियां छीन ली जाएंगी और उनकी जगह प्रधानमंत्री हान डक-सन, जो सरकार में नंबर २ पोजीशन पर हैं, के पास राष्ट्रपति की जिम्मेदारियां चली जाएंगी। चूंकि संवैधानिक अदालत के तीन सदस्य रिटायर हो गए हैं, उनके स्थान रिक्त पड़े हैं इसलिए सभी शेष छह न्यायाधीशों की सहमति से ही महाभियोग मोशन सफल हो सकेगा। येओल ने मार्शल लॉ थोपने की पूरी तैयारी की हुई थी। नेशनल असेंबली से सांसदों व प्रदर्शनकारियों को दूर रखने के लिए फौज तैनात की गई थी और वह भी असाल्ट राइफल्स सहित युद्ध के पूर्ण साजो-सामान के साथ। सैन्य हेलिकॉप्टर्स भी पास में ही तैयार खड़े कर दिए गए थे।
दक्षिण कोरिया में खामोश रहने वाले लोग नहीं हैं, वैसे तो वह बहुत अनुशासन में रहते हुए अपने काम से काम रखते हैं, लेकिन जब उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो वह गुस्से में सड़कों पर उतरने में भी संकोच नहीं करते हैं। मार्शल लॉ का विरोध करने के लिए बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतरे, सैनिकों ने उन पर बंदूकें भी तानी, लेकिन वह न डरे और न ही पीछे हटे। जनता के सहयोग से १९० सांसद, जिनमें स्पीकर व विपक्ष के नेता भी शामिल थे, नेशनल असेंबली की दीवारें फांदकर अंदर प्रवेश कर गए और उन्होंने मार्शल लॉ आदेश को पराजित कर दिया। बहरहाल, सियोल के इस नाटक का सबसे महत्वपूर्ण अंश यह है कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए अत्यधिक आवश्यकता पार्टियों के भीतर की असहमति होती है। जब पार्टियों में इसका अभाव होता है, चाहे व्हिप के कारण या नेताओं की बुजदिली की वजह से या उनके जमीर के मरने से तो लोकतंत्र को भी तानाशाही में बदलने में देर नहीं लगती है। दक्षिण कोरिया की घटना लोकतंत्र की प्रथा को बनाए रखने के लिए पार्टियों के भीतर की असहमति की आवश्यकता पर बल देती है। दक्षिण कोरिया का संविधान कहता है कि राष्ट्रपति को मार्शल लॉ लगाने के लिए लेजिस्लेचर का फैसला लाजिमी तौर पर मानना होगा। यह ठोस सुरक्षाकवच है। सर्वसम्मति से संसद ने येओल के सैन्य शासन लगाने की योजना पर पानी फेर दिया।
अपने भी खिलाफ हुए
सदन में मौजूद सभी १९० सांसदों, जिनमें येओल की पार्टी के १८ सदस्य भी शामिल थे, ने मार्शल लॉ के आदेश को हरा दिया। कहने का अर्थ यह है कि बेतुके क्रूर आदेश का विरोध केवल विपक्ष ने ही नहीं किया बल्कि येओल की अपनी पीपल पॉवर पार्टी ने असहमति व्यक्त की और उसके नेताओं ने इस हरकत को ‘गलत चाल’ कहा। इससे मालूम होता है कि पार्टियों की अंदरूनी असहमति का कितना अधिक महत्व है। सियोल अपवाद हो सकता है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पार्टियों की अंदरूनी असहमति में पार्टी के विचारों के फलक को विस्तार देने की क्षमता होती है। अक्सर देखने में यह आता है कि पार्टी हाईकमान जो पैâसला कर दे उसे ही राजनीतिक दल अपनी नीति बना लेते हैं, लेकिन निश्चित हालात में जिससे सफलता मिली है उससे चिपके रहने से स्थिरता या विचारधारा का कोई खास संबंध होता नहीं है; इसका कल्पना के अभाव से अधिक संबंध होता है और बुनियाद को न पहचान पाने की नाकामी से भी। पार्टियों के लिए यह जरूरी है कि वह घर के मोर्चे पर भी और ग्लोबली भी आर्थिक, टेक्नोलॉजी व सामाजिक परिवर्तनों की रफ्तार के अनुरूप खुद को ढालती रहे। प्रासंगिक बने रहने की कुंजी यह है कि लोगों की जरूरतों के प्रति सचेत रहा जाए, चाहे वह वास्तविक हों, बनाई हुई हों या अनुमानित हो। असहमत नेता ही अपने अलग (जो कि रेडिकल भी हो सकते हैं) विचारों से पार्टियों में जान व जोश फूंकते हैं। असहमति ही हां-हां वाद और चंद नेताओं के गुट की तानाशाही पर विराम लगाती है। अलग-अलग दृष्टिकोण ठोस नीति विकास को जन्म देते हैं। मसलन, इंग्लैंड की लेबर पार्टी की अंदरूनी बहसों को ही लें, जो १९९० के दशक में परंपरागत समाजवादियों और ‘न्यू लेबर’ गुटों के बीच हुई तीन लगातार चुनावी पराजयों के बाद अंदरूनी असहमति ने ही लेबर के राजनीतिक मंच को नया आकार दिया और पार्टी रूढ़िवादिता से हटकर बाजार अर्थव्यवस्था की ओर आई व उसे जबरदस्त चुनावी विजय हासिल हुई। फिर डोनाल्ड ट्रंप को देखो कि बाहरी, विघ्नकरी, अप्रिय होने के बावजूद भिन्न-मतावलंबी हैं, जिनकी टैरिफ कर योजना ने सभी पंडितों को गलत साबित करते हुए रिपब्लिकन को दूसरा टर्म दिला दिया है। असहमति से ही जर्मनी के ग्रीन्स केंद्रीय पार्टी बन गए हैं। गुटबाजी को नियंत्रित करने के लिए असहमति को रोकने का प्रयास किया जाता है, लेकिन नए विचारों का बहाव ही पार्टी को मजबूत करता है। असहमति ने ही येओल की बेवकूफी पर विराम लगाया। अब देखना यह है कि महाभियोग पर उनकी पार्टी की क्या प्रतिक्रिया रहती है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)