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उडनछू : किस्सा पीनस का

अजय भट्टाचार्य
डॉ. योगेश प्रवीन की पुस्तक ‘आपका लखनऊ’ में एक कहानी के अनुसार लखनऊ के एक शायर की शायराना वसीयत की बड़ी चर्चा होती है। उन्होंने अपनी मौत के बाद ये वसीयत छोड़ी, जो उनके अधूरे कहे गए शेर को पूरा करेगा, वही उनकी मिट्टी (मृत देह) को गुसल (स्नान) कराएगा, वही उनके कफन दफन को अंजाम देगा, शेर क्या था एक सवाल था:-
‘क्या तेरे हाथ टूट जाते, जो देख लेती एक बार’
अब यह मिसरा भी अपने आप में बेमिसाल, यानी देखने और हाथ टूटने का आपस में क्या रिश्ता? इस मिसरे पर न आसानी से गिरह लगाई जा सकी और न उनका जनाजा उठ सका। इसी बीच उधर गोमती घाट से वापस गुजरते हुए एक धोबी ने मैय्यत के साथ लगी भीड़ को देखा और वजह पूछी, तो मालूम हुआ कि इस मिसरे में गिरह लगाना है और आखिर में उस धोबी ने इजाजत मांग कर इस समस्या को हल कर दिया। यह कहकर कि शायर तो नहीं हूं, लेकिन सोहबतें उठाई है, उसने कहा-
‘क्या तेरे हाथ टूट जाते, जो देख लेती एक बार
इतना भारी तेरी पीनस का, वो पर्दा तो ना था’
पीनस अर्थात डोली या पालकी।
वहीं, रास्ते में कहीं चुपके से किसी झरोखे से झांकता हुआ कोई प्रेमी जब अपनी ही गली-कूचे-रस्ते से विदा होती अपनी प्रेमिका को देखता होगा तो उसके दिल में एक हूक सी उठती होगी। वो सोचता होगा कि काश एक बार, बस एक आखिरी बार किसी बहाने से वो पीनस रुकवाकर मुझसे मिल ले। लेकिन पीनस नहीं रुकती। इसी बात पर तो उस्ताद गालिब ने कहा होगा-
पीनस में गुजरते हैं जो कूचे से वो मेरे।
कंधा भी कहारों को बदलने नहीं देते।।
लेकिन अब लोक-लाज के कारण प्रेमिका की कुछ ऐसी मजबूरी है कि पालकी उठानवाले कहारों को कंधा भी नहीं बदलने देती कि इसी बहाने से ही प्रेमी को एक घड़ी देख ले। चलते-चलते, पीनस गली-कूचे-रस्ते के मोड़ पर पहुंच गई है। प्रेमी घर से बाहर आ जाता है। इस आस में कि शायद एक आखिरी बार वह मुझे अपनी कनखियों से देख ले। देख ही ले! एक धचके के साथ पीनस मुड़ कर आंखों से ओझल हो जाती है। प्रेमी मायूस हो जाता है। वह प्रेमिका की एक झलक देखने से भी चूक जाता है।
फिर निराश हुए प्रेमी के दिल से यही बात निकलती होगी,-
‘क्या तेरे हाथ टूट जाते, जो देख लेती एक बार
इतना भारी तेरी पीनस का, वो पर्दा तो ना था’
महाराष्ट्र की वर्तमान राजनीति इस कहानी से थोड़ी उलट है। यहां पर्दा-वर्दा तो दूर कहार खुद पीनस में बैठ गए और ढाई साल से जिस दुल्हन को ढो रहे थे उसी दुल्हन को पीनस से उतार दिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं।)

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