संजय राऊत – कार्यकारी संपादक
विधानसभा चुनाव के नतीजे मुंबई से मराठी लोगों का पतन करनेवाले हैं। मुंबई में मराठी नहीं बोल पाएंगे। क्योंकि अब महाराष्ट्र में भाजपा का राज आ गया है। इस वजह से मुंबई में ‘गुजराती-मारवाड़ी में बोलें’ ऐसा आग्रह खुले तौर पर शुरू हो गया है। क्या मुंबई में अब से मराठी लोगों को आतंक के साये में गुलामों की तरह जीना पड़ेगा? कुल मिलाकर यही स्थिति दिखाई दे रही है। १०५ शहीदों का बलिदान असल में किसके लिए हुआ? देवेंद्र फडणवीस, इस प्रश्न का उत्तर दो।
देश की राजधानी दिल्ली में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन मनाया जा रहा है और सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष वरिष्ठ नेता श्री. शरद पवार हैं। चूंकि सम्मेलन दिल्ली में हो रहा है इसलिए यह बताने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी इसके उद्घाटक होंगे। सवाल ये है कि जब दिल्ली से ही महाराष्ट्र के स्वाभिमान का संपूर्ण पतन शुरू हो गया है तो ऐसे सम्मेलन से क्या हासिल हो जाएगा? बेलगांव फिलहाल कर्नाटक में है। महाराष्ट्र राज्य की स्थापना के बाद से बेलगांव क्षेत्र के २० लाख मराठी बंधु महाराष्ट्र में आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। महाराष्ट्र में विधानसभा का और दिल्ली में संसद का सत्र शुरू रहने के दौरान वहां की सरकार ने बेलगांव में मराठी लोगों का सम्मेलन होने नहीं दिया। मराठी लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। बेलगांव का मामला सुप्रीम कोर्ट में है। लेकिन पिछले १५-२० सालों से सिर्फ तारीखें ही मिल रही हैं। जब मामला लंबित है तो वहां के मराठी लोगों के अधिकारों पर इस तरह लाठी चलाना उचित नहीं है। कर्नाटक भारत में है और कर्नाटक में रहने वाले मराठी लोगों को उनका त्योहार-उत्सव, सभा-सम्मेलन आयोजित करने का अधिकार उन्हें भारत के संविधान ने दिया है। उत्तर प्रदेश, बिहार के लोग महाराष्ट्र में अपना कार्यक्रम करते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चुनाव प्रचार के लिए यहां आते हैं और अपने मराठी विरोधी विचार पेश करते हैं। छठ पूजा का आयोजन होता है। कर्नाटक, तमिलनाडु के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उत्सव होते हैं। उसे कोई नहीं रोकता; लेकिन बेलगांव में मराठी लोगों की सारी आजादी जबरदस्ती छीन ली जाती है। जो लोग यह घोषणा करते हैं कि बेलगांव, कारवार, निपानी, बीदर, भालकी के साथ संयुक्त महाराष्ट्र बनना ही चाहिए, उन्हें अपराधी करार दिया जाता है। महाराष्ट्र के राजनेता और साहित्यकार इसका विरोध करने को भी तैयार नहीं हैं।
महिमा नष्ट हो गई
पुर्तगालियों ने अपने सौ वर्षों के शासन के दौरान मुंबई के गौरव को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था। १६६५ में हम्फ्री कुक ने पुर्तगालियों से मुंबई द्वीप को अपने कब्जे में लिया, तब मुंबई शिलाहारों की गौरवशाली राजधानी नहीं थी। यह यादवों का स्वर्ग नहीं था, यह मुसलमानों द्वारा नष्ट किया गया, पुर्तगालियों द्वारा तबाह किया गया एक दरिद्र द्वीप था। महालक्ष्मी के निकल जाने के बाद वह एक वीरान भूमि बन गई थी। मोदी-शाह यानी भाजपा के राज में मुंबई की हालत एक बार फिर वैसी ही होती दिख रही है। मेहनत से बनाई गई महालक्ष्मी निकलकर फिर कहीं जा रही हैं! ऐसी चिंताजनक स्थिति काली छाया की तरह चारों ओर मंडरा रही है। महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की जीत होते ही सबसे पहला हमला मराठी भाषा पर हुआ और वो भी मुंबई में। ‘‘मुंबई में अब मराठी में बात न करें। मराठी नहीं चलेगी। मारवाड़ी या गुजराती में बात करें,’’ ऐसे यहां के दुकानदार हड़काने लगे। ये घटनाएं कालबादेवी, मुंबादेवी, पार्ले, मुलुंड, घाटकोपर, ठाणे शहर, मीरा-भायंदर में हुईं। ये लोग अब कल्याण-डोंबिवली, नासिक, पुणे, नागपुर, जलगांव में भी पहुंच गए। यहां के गुजराती-मारवाड़ी अब कह रहे हैं कि मुंबई में मराठी लोगों का कोई अधिकार नहीं है, इसे मराठी लोगों का दुर्भाग्य ही कहना पड़ेगा। मुंबई में गुजराती में बोर्ड लगने शुरू हो गए हैं और ‘‘मराठी में बोर्ड लिखें, नहीं तो हम तोड़ देंगे’’, ऐसा आंदोलन करनेवाले दल भी मोदी-शाह-फडणवीस की पंक्ति में शामिल हो गए हैं। यह अन्याय तब तक जारी रहेगा, जब तक महाराष्ट्र के राजनेताओं को नहीं लगता कि मराठी का विषय हम सबका है। आज की तस्वीर कितनी भयावह है! चंद्रपुर में नगरपालिका और जिला परिषद के स्कूलों को ‘अडानी’ को सौंप दिया गया। महाराष्ट्र का स्कूली शिक्षा विभाग इन स्कूलों का प्रबंधन शिक्षण संस्थानों को नहीं, बल्कि अडानी फाउंडेशन को सौंपता है और राजनीतिक लोग सूखा विरोध करने के अलावा कुछ भी नहीं करते। अडानी को ‘धारावी’ का पुनर्वास नहीं देना है, ये सही है। तो फिर मराठी स्कूलों को उनके गुजराती प्रबंधन को क्यों दिया जाए? न केवल मुंबई, बल्कि महाराष्ट्र का भी अडानीकरण और गुजरातीकरण सहजता से शुरू हो गया है। हाल के विधानसभा नतीजे के बाद तो मराठी पूरी तरह से नजरअंदाज कर दी जाएगी, यही भय होने लगा है।
हाथ में क्या बचा?
मुंबई में मराठी माणुस के पास वास्तव में क्या बचा है? मुंबई के जीवन के किसी क्षेत्र में अगर महाराष्ट्र का यानी मराठी लोगों का प्रदर्शन सबसे कम रहा है तो वह है व्यापार और उद्योग क्षेत्र। मुंबई के सार्वजनिक जीवन में अन्य सभी मामलों में उत्कृष्ट स्तर का कार्य करने वाला महाराष्ट्र मुंबई के व्यापार और उद्योग में पीछे रह गया, इसलिए वह अपने ही घर में खुद को बेगाना महसूस कर रहा है। बस इसी एक बात को लेकर मुंबई पर महाराष्ट्र का अधिकार खत्म करने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। महाराष्ट्र यह सब आज चुपचाप देख रहा है। मुंबई का समाचार पत्र व्यवसाय मराठी लोगों के पास था। कोरोना के बाद समाचार पत्रों की पाठक संख्या घट गई। मराठी नाटक, मराठी सिनेमा के भी अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं। साउथ की फिल्म ‘पुष्पा-२’ देखने के लिए सांगली से लेकर मुंबई तक टिकट खिड़की पर भीड़ उमड़ पड़ती है। ‘पुष्पा-२’ के टिकट को लेकर कुछ जगहों पर मारपीट भी हुई, लेकिन मराठी फिल्म इंडस्ट्री की स्थिति ठीक नहीं है। मुंबई के प्रमुख सरकारी कार्यालय, उद्योग पहले ही गुजरात में स्थानांतरित हो चुके हैं। हीरा बाजार सूरत चला गया। इससे महाराष्ट्र का बड़ा राजस्व भी गुजरात की तिजोरी में चला गया। ऐसा सभी क्षेत्रों में तेजी से हो रहा है। फिर भी मराठी राजनेताओं की पलकें फड़फड़ा नहीं रही हैं।
निर्माण व्यवसाय
मुंबई के कंस्ट्रक्शन कारोबार में गुजरात, हरियाणा के अमीरों का पैसा लगा है। अडानी से लेकर हरियाणा के सुमित नरवर तक हर कोई मुंबई के निर्माण व्यवसाय में है और फडणवीस की सरकार नियम तोड़कर उनकी मदद कर रही है। इस निर्माण व्यवसाय से बड़ा मुनाफा भाजपा नेताओं की जेब में जाता है। अन्य लोग भी इसमें हाथ धोते हैं। इस वजह से सभी के मुंह पर चिपकनेवाली पट्टी लगी हुई है। गिरगांव, परेल, शिवडी, लालबाग इलाकों में गुजराती और जैन लोगों के टॉवर्स खड़े हो गए। यहां मतदान महाराष्ट्र के खिलाफ हो रहे हैं। आश्चर्य यह है कि ये टॉवर्स ‘एक हैं तो सेफ हैं’ का उद्घोष करनेवालों के हैं। इन टॉवरों में मराठी व्यक्ति को जगह देने का उनका विरोध, मतलब यहां एक मराठी व्यक्ति उनके लिए हिंदू नहीं है। उन्हें मराठी लोगों का पक्ष लेनेवाली शिवसेना जैसी पार्टी नहीं चाहिए। लोकसभा और विधानसभा में ये सभी टॉवर्स महाराष्ट्र के सीने पर नाचते हुए नजर आए और ‘मराठी नहीं चाहिए’ ऐसी इन सभी टॉवर्स की भूमिका है तो मराठी लोगों को एकजुट होकर इन टॉवर्स से मुकाबला करना होगा।
मराठी कौन?
महाराष्ट्र का ‘मराठी’ माणुस आज मराठी नहीं रहा। कहीं मराठा, कहीं ओबीसी, तो कहीं वो हिंदू बन गया है। ऐसे में मुंबई मराठी लोगों के हाथ से फिसलती नजर आ रही है। भाजपा की व्यापारिक वृत्ति ने मुंबई को निगल लिया। इस वजह से अब सिर्फ मुंबई की घुटनभरी सांसें और छटपटाहट नजर आती है। अब ‘मराठी मत बोलो’ से शुरू हुई धमकियां इससे आगे ‘मराठी आदमी यहां से चले जाएं’ तक जाएंगी। विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र को क्या मिला? मुंबई पर गुजरातियों-मारवाड़ियों को अधिकार सहजता से दे दिया गया।
मुंबई सहित महाराष्ट्र के निर्माण के लिए १०५ मराठी लोगों ने अपना बलिदान दिया।
क्या शहीद स्मारक पर भी ‘टॉवर्स’ खड़े हो जाएंगे?