एड. राजीव मिश्र
मुंबई
सालन बाद मनोहर घर जाए के तैयारी मा लाग हैं। टिकट तो साठ दिन पहिले ही निकाल लिए रहें। बहुतय मशक्कत के बाद सीट भेटान अहइ उहौ खिड़की वाली सीट। घरे फोन कइके मनोहर घर वालन का बताय दीहें हैं कि गोदान के टिकस निकरि गवा है कउनउ चिंता फिकिर नहीं है। खिड़की के सीट मिली है। खिड़की के सीट के मजा कुछ अउर है अराम से आवत-जात कुल स्टेशन देखो अउर जवन मरजी होय खिड़की से हाथ निकारि के खरीद लेव। खिड़की के सीट के बातय कुछ अउर है। मनोहर के मेहरिया पूरे गाँव मा ई बात बताइ के आइ गय कि ‘हमरे ई परदेश से आय रहे हैं। भौजी टिकस मिलि गवा है अउर सबसे बड़ी बात ई है कि खिड़की के सीट मिली है। अरे वाह, ई तो बहुतै नीक बात है। हम तो अपने छोटकना के इहाँ गय रहे तो बहिनी सीटियय नाय मिल पाई। दुई सीटी के बीच पड़ी खाली जगह मा जमीन पर पेपर बिछाय के जइसे-तइसे तव हम मुंबई पहुँचन। ई कउनउ छोट बात नहीं है। बड़-बुजुर्गन के अशीरबाद रहा तबै खिड़की के सीट मिली। सच कही भौजी ई सब आपै सबके पुन्य-परताप है। वइसे कहिया आवत हैं? ठीक पुन्नवासी के घरे पहुँचि जइहैं। चली भौजी अबहीं घर बहारय के परा बाटय। ओहर मनोहर कपड़ा पहिन के बाकस लइके समय से एक घंटा पहिले स्टेशन पहुँचि गए। थोड़ी देर मा गाड़ी यार्ड से आई, पर ई का गाड़ी मा पहिले से ही आदमी भरे हैं। खैर, मनोहर के तो रिजब है सीट। कइसौ-कइसौ कइके जब अपनी सीट पर पहुँचे तो एक ठो पहलवान टाइप अदमी सीट पय कब्जा किये बईठा रहा। सीट पर दूसर आदमी का देख के मनोहर बोल परे, भइया ई हमरी सीट है। पहलवान आदमी मनोहर की ओर आंख देखावत बोला, तो ठीक है। तोहार सीट है तो घर तो लेइ न जइहौ। हम जियादा दूर नाहीं, बस सतना तक जइबे। तब तक तुम कहीं अउर बईठ लो। आखिर मा मनोहर भुई मा अखबार बिछाय के पूरा सफर काटि दीहें अउर कान पकड़े कि अब कब्बउ खिड़की वाली सीट ना लेबय।