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इस्लाम की बात : ख्वाजा की दरगाह और सियासी चादर का चढ़ावा मजबूर मोदी

सैयद सलमान मुंबई

अजमेर शरीफ में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का उर्स मनाया जा रहा है। गरीब नवाज के नाम से मशहूर ख्वाजा साहब के ८१३ वें उर्स मुबारक के मौके पर विभिन्न दलों से जुड़े राजनेताओं द्वारा अपनी तरफ से दरगाह पर चादर पेश करने का सिलसिला जारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने गरीब नवाज पर चादर चढ़ाई। वसुंधरा राजे सिंधिया और राजनाथ सिंह सहित कई भाजपा नेताओं की तरफ से भी चादर चढ़ाई गई है। सियासी गलियारे में इस बात की चर्चा है कि एक तरफ तो मोदी मुसलमानों के प्रति तिरस्कार की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, दूसरी तरफ मुसलमानों की तरफ सूफी-संतों के नाम और दरगाहों के माध्यम से संवाद का द्वार भी खोले रखना चाहते हैं। मोदी सरकार की मुस्लिम समुदाय के प्रति नीतियों में विरोधाभास स्पष्ट है। उनकी सरकार ने कई ऐसे निर्णय लिए हैं, जो मुस्लिम समुदाय को प्रभावित करते हैं। मसलन, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी)। शायद उन्हें एहसास भी हो कि देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी उनसे खुश नहीं है इसीलिए वे सूफी परंपरा के प्रति आदर भाव जताकर मुस्लिम समुदाय के करीब जाने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, चादर पेश करने के लिए उनकी सराहना भी होनी चाहिए।
ख्वाजा साहब की सीख
ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह हमेशा से सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक रही है। यहां सभी धर्मों के लोग आते हैं और अपनी आस्था व्यक्त करते हैं। यह एक ऐसा स्थान है, जहां जाति और धर्म की सीमाएं धुंधली पड़ जाती हैं। ख्वाजा साहब का जन्म वर्ष ११४३ में ईरान के सिस्तान क्षेत्र में हुआ। उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत में ही सांसारिक मोह-माया त्यागकर आध्यात्मिकता की ओर रुख किया। उन्होंने हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से दीक्षा प्राप्त की और बाद में हज के लिए मक्का और मदीना गए। इसके बाद वे मुल्तान होते हुए हिंदुस्थान आए। वर्ष ११९२ में जब मोइनुद्दीन मुहम्मद बिन साम ने दिल्ली पर शासन स्थापित किया, तब ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर को अपना ठिकाना बनाया। यहीं से उन्होंने अपनी आध्यात्मिक शिक्षा के द्वार खोले। जल्द ही स्थानीय लोगों में वे लोकप्रिय हो गए। ख्वाजा साहब ने सूफीवाद के सिद्धांतों को पैâलाने का कार्य किया, जिसमें ईश्वर की भक्ति और मानवता की सेवा शामिल थी। उनकी शिक्षाएं जाति और धर्म से परे थीं, जिससे सभी समुदायों के लोग उनकी ओर आकर्षित हुए। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का निधन साल १२३६ में हुआ और उन्हें अजमेर में ही दफनाया गया। उनकी दरगाह आज भी एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जो हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों के लिए श्रद्धा का केंद्र है।
हाल ही में ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह को लेकर एक विवाद उठ खड़ा हुआ था। एक याचिका के माध्यम से दावा किया गया कि दरगाह की जगह पहले एक शिव मंदिर था। याचिका को राजस्थान की एक निचली अदालत ने सुनवाई के लिए स्वीकार भी कर लिया। इस विवाद का मुख्य कारण यह है कि कुछ लोगों का मानना है कि दरगाह का निर्माण हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर किया गया था। अदालत द्वारा याचिका स्वीकार किए जाने के बाद, अब दरगाह के सर्वेक्षण की मांग उठाई गई है। यह मामला उस समय और भी संवेदनशील हो गया, जब यूपी के संभल में जामा मस्जिद के सर्वेक्षण को लेकर विवाद हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप हिंसा भी हुई थी। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को लेकर चल रहा यह विवाद धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बन गया है और इसके संभावित परिणामों पर सभी की नजरें टिकी हुई हैं। इसका असर मुस्लिम समाज पर देखा गया, उनमें भय और चिंता का भाव है।
असहज मुस्लिम समाज
मोदी सरकार के तीसरी बार सत्तासीन होने से सबसे ज्यादा असहज मुस्लिम समाज महसूस कर रहा है। देशभर में जितनी भी मुस्लिम विरोधी घटनाएं हुर्इं, उनमें से ज्यादातर में भाजपा या उसके सहयोगी संगठनों का ही हाथ रहा है। बतौर देश के प्रधानमंत्री और अभिभावक नरेंद्र मोदी ने ऐसे विषयों को पूरी तरह नजरअंदाज किया है। एक बयान भी उनकी तरफ से नहीं आया। खैर, बयान तो हिंसा की चपेट में आए मणिपुर मामले में भी उन्होंने अब तक नहीं दिया है। स्पष्ट है कि यह उनकी असंवेदनशीलता और कमजोर तबकों के प्रति तिरस्कार की भावना है। ऐसे माहौल में मोदी जैसे राजनेता जब किसी सूफी-औलिया की दरगाह पर चादर पेश करते हैं तो यह एक प्रकार का राजनीतिक प्रदर्शन होता है। सियासी जुबान में यह दिखाने का प्रयास होता है कि वे धार्मिक सहिष्णुता और विविधता का सम्मान करते हैं। लेकिन क्या ऐसे नेता वास्तव में उस समुदाय के प्रति संवेदनशील हैं, जिसे वे अक्सर अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका जवाब देना न तो नरेंद्र मोदी और न ही भाजपा की फितरत से मेल खाता है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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