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महाकुंभ करेगा महा कल्याण

पवित्र दुबे

यह वर्ष आस्था के पर्व महाकुंभ का वर्ष है। कुंभ मेले का इतिहास कम से कम ८५० साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार, कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। कुंभ मेला किसी स्थान पर लगेगा यह राशि तय करती है। इसके आयोजन के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित है। समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत की बूंदें छलकते समय जिन राशियों में सूर्य, चंद्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग होते हैं, वहीं कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर ही आयोजन किया जाता है। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चंद्रमा के विशेष प्रयत्न रहे थे। इसी कारण इन ग्रहों का विशेष महत्त्व रहता है और इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ का पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है।
कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है। पूरे देश में चार स्थानों पर बारह-बारह वर्ष के अंतर से कुंभ का आयोजन किया जाता है। प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन। विष्णु पुराण में बताया गया है कि जिस समय गुरु कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में हो, तब हरिद्वार में कुंभ पर्व होता है। जिस समय सूर्य तुला राशि में स्थित हो और गुरु वृश्चिक राशि में हो, तब उज्जैन में कुंभ पर्व मनाया जाता है। जब सूर्य एवं चंद्र मकर राशि में होते हैं और अमावस्या होती है तथा मेष अथवा वृषभ के बृहस्पति होते हैं तो प्रयाग में कुंभ महापर्व का योग होता है। जब गुरु सिंह राशि पर स्थित हो तथा सूर्य एवं चंद्र कर्क राशि पर हों, तब नासिक में कुंभ होता है। नासिक के कुंभ को भी महाराष्ट्र में सिंहस्थ कहा जाता है। उज्जैन की पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान का महात्यम चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ हो जाता है और वैशाख मास की पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होता है। उज्जैन के प्रसिद्ध कुंभ महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्द्धकुंभ होता है। अर्द्ध या आधा कुंभ, हर छह वर्ष में आयोजित किया जाता है। कुंभ की तरह अर्द्ध कुंभ भी लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। सिंहस्थ महाकुंभ के आयोजन की प्राचीन परम्परा है। उज्जैन में लगने वाले कुंभ मेलों को सिंहस्थ नाम से जाना जाता है। समुद्र मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है। १२ साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है, जबकि कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला ५२५ बीसी में शुरू हुआ था। यह पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल में स्नान करते हैं। खगोल गणनाओं के अनुसार कुंभ मकर संक्रांति के दिन प्रारंभ होता है, जब सूर्य और चंद्रमा, वृश्चिक राशि में और बृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को ‘कुंभ स्नान-योग’ कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है।
कुंभ में पौष पूर्णिमा के स्नान के साथ ही कल्पवास की शुरुआत हो जाती है। कल्पवास एक महीने तक चलता है। कल्पवास पौष पूर्णिमा से शुरू होकर माघ पूर्णिमा तक चलता है। कल्पवास के दौरान यहां एक महीना बिताने वाले भक्त दिन में तीन बार स्नान करते हैं और एक ही बार भोजन करते हैं। कल्पवास में उन्हें काम, क्रोध, मोह, माया से दूर रहने का संकल्प लेना होता है। माना जाता है कि कल्पवास करने वाले शख्स को ब्रह्मा की तपस्या करने के बराबर फल मिलता है। श्रद्धालुओं में गंगा स्नान को लेकर खासा उत्साह रहता है। ज्यादातर श्रद्धालु एक महीने तक यहां कल्पवास नहीं कर सकते। ऐसे में अगले तीन दिन वो गंगा किनारे रहकर पुण्य हासिल लेने की कोशिश करते हैं। मान्यता है कि पौष पूर्णिमा पर गंगा स्नान करने और दान करने से जीवन में खुशियां आती हैं। कल्पवास को धैर्य, अहिंसा और भक्ति के लिए जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है।

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