-और कितनी लफ्फाजी?
मनोहर मनोज
अब जब हमने आगामी २०४७ तक विकसित राष्ट्र बनने का एलान कर दिया है तो ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद में कम से कम एक चौथाई की हिस्सेदारी निर्यात क्षेत्र से होनी जरूरी है। उपलब्ध आंकडों के मुताबिक, अप्रैल-नवंबर २०२४ के दौरान भारत का कुल निर्यात ५३६ अरब डॉलर था, जो पिछले वर्ष की इस अवधि के ४९८ अरब डालर के मुकाबले ७.५ फीसदी ज्यादा है। जबकि अगले २३ सालों में विकसित देश बनना है तो इस दौरान हमारा निर्यात कम से ९५० अरब डॉलर होना चाहिए था। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने अनुमान लगाया है कि चालू वित्त वर्ष २०२४-२५ के दौरान देश का कुल निर्यात करीब ८०० अरब डॉलर होगा, जो पिछले वित्त वर्ष में ७७० अरब डॉलर के करीब ३० बिलियन डॉलर ज्यादा होगा, जबकि इसे १८० बिलियन डॉलर ज्यादा होना चाहिए था।
अभी भी हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात बढ़ाने के कई उपायों के बावजूद एक्सपोर्ट मॉडल केंद्रित न होकर आयातित मशीनरी व तकनीकी आधारित है, जिस वजह से हमारा व्यापार घाटा सकल घरेलू उत्पाद के एक फीसदी से कम नहीं हो पा रहा। विगत में यह दो से ढाई फीसदी तक गया है। अभी पिछले दिसंबर माह के आंकड़ों पर गौर करें तो हमारा निर्यात ३८ अरब डॉलर तथा आयात ६० अरब डॉलर है।
१९९० के दशक की बात करें तो उस समय कुल विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी महज आधा फीसदी थी, जो अब करीब डेढ से दो फीसदी तक पहुंची है। जबकि अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन की बात करें तो विश्व व्यापार में ९० के दशक में उनकी हिस्सेदारी जहां महज दो फीसदी थी, अब बढ़कर करीब १५ फीसदी हो चुकी है। दुनिया के कुल निर्यात का एक तिहाई हिस्सा अकेले चीन द्वारा किया जाता है। अभी चीन का चार खरब डॉलर का कुल निर्यात आकार उतना ही है, जितना बड़ा आकार फिलहाल भारत की समूची अर्थव्यवस्था का है।
आक्रामक निर्यात रणनीति नहीं
यह ठीक है कि दुनिया के कई मुल्कों की अर्थव्यवस्था आयात आधारित होते हुए भी यथोचित प्रगति के सोपान हासिल करने में सफल रही हैं। परंतु हर देश को अपनी वस्तुओं व सेवाओं व्यापार के एडवांटेज और डिसएडवांटेज पहलू की बड़ी बुद्धिमतापूर्वक प्लानिंग व रणनीति बनाने की आवश्यकता पड़ती है। दूसरा देशों को समय समय पर अलग-अलग तकनीक व समयानुगत मांगों की आपूर्ति को लेकर भी अपनी रणनीति बदलती रहनी पड़ती है। मिसाल के तौर पर भारत अपने तीन चौथाई पेट्रोलियम उत्पादों जिसमें ८५ फीसदी कच्चे तेल व ४४ फीसदी प्राकृतिक गैस तथा उर्वरकों व मेटल्स की जरूरतों के लिए आयात पर निर्भर करता है। पर भारत ने आयातित कच्चे तेल का प्रसंस्करण कर तैयार पेट्रोलियम उत्पादों का एक बड़ा निर्यातक देश बना तो उससे व्यापार संतुलन लाने में बड़ी सहूलियत मिली।
लेकिन अभी दिसंबर माह में तैयार पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात में २८ फीसदी की गिरावट आई है। इसी तरह भारत हर साल करीब ४० अरब डॉलर का सोना खरीदता है पर इसी के बरक्श पॉलिश किए जेम्स व ज्वेलरी का भारत एक बड़ा निर्यातक बना तो इससे भी व्यापार संतुलन लाने में सहूलियत मिली। पर हाल के आंकड़े के मुताबिक जेम्स व ज्वेलरी के निर्यात में २६ फीसदी की गिरावट आ गई। भारत ने इधर जबसे पीएलआई यानी प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव योजना शुरू की तो सरकार का प्रोत्साहन व्यय जरूर ब़ढ़ा, पर इससे मोबाइल फोन सेट जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादों के आयातक से निर्यातक देश में बदलने की कहानी भी शुरू हुई। भारत में आयात प्रतिस्थापन व निर्यात प्रोत्साहन की नीति विगत के योजनाकरण के दौर में सरकार की एक आधारभूत नीति हुआ करती थी, पर अलग-अलग आइटम व सिगमेंट तथा नए-नए व्यापार चलन व प्रचलन के हिसाब से भारत एक वैसी आक्रामक निर्यात रणनीति नहीं बना पाया जैसे कि हमारे पड़ोसी देश चीन ने किया।
यह ठीक है कि चीन ने अपनी बाह्य अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की शुरूआत हमसे एक दशक पूर्व कर दिया था, जिससे एक तरफ उसके यहां बड़ी मात्रा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफ से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आया और फिर वह समूची दुनिया का पैâक्ट्रीr हाउस बनने में कामयाब होता गया। चीन ने समूची दुनिया के अलग-अलग देशों की मांग और उनकी क्रय क्षमता के हिसाब से उनके अनुरूप वस्तु व सेवाओं का उत्पादन, प्राइसिंग व उनकी सप्लाई की। इस क्रम में उसने समूचे अमेरिका व यूरोप की कई जरूरतों की मांग हथिया ली, क्योंकि इन देशों को ये लगता था कि इन चीजों के घरेलू उत्पादन की लागत ज्यादा है और इनकी सप्लाई चीन से कराने में उन्हें ज्यादा फायदा है। इसी तरह भारत को जिसे टेक्सटाइल व हैंडीक्राफ्ट जैसे मदों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में बढ़त प्राप्त थी, उसे वह पिछले तीन दशक में आगे नहीं बढ़ा पाया और चीन व बांग्लादेश जैसे देश उसे इस मामले में कड़ी टक्कर देते चले गए।
भारत की अर्थव्यवस्था फार्मेसी व कंप्यूटर हार्डवेयर तथा इलेक्ट्रॉनिक्स की आधारभूत चीजों के लिए चीन पर निर्भर रही है। इनका त्वरित रूप से आयात प्रतिस्थापन करने में हम सक्षम नहीं हो पाए। ये ठीक है कि हमने इधर स्मार्ट मोबाइल व कंप्यूटर सेमीकंडक्टर व चिप्स के कई सारे प्लांटों की नींव देश में डाल दी, जिसके अच्छे नतीजे जरूर मिलेंगे।
नई चुनौतियां
दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था के सेवा प्रधान होने की वजह से व्यापार मामले में भी सेवा क्षेत्र की प्रधानता ज्यादा देखी गई है। मर्चेंडाइज सेक्टर में हमारा आयात-निर्यात से काफी ज्यादा है, जबकि सेवाओं के मामले में हमारा निर्यात आयात से काफी ज्यादा है। मिसाल के तौर पर वर्ष २०२४ के अप्रैल-नवंबर अवधि के दौरान मर्चेंडाइज व्यापार मामले में भारत करीब २०० अरब डॉलर के घाटे में था, जबकि सेवा सेक्टर में भारत को करीब १२० अरब डॉलर का व्यापार अतिरेक हासिल था। यही वजह है कि भारत दुनिया में विदेशों से कमाई हासिल करने वाला सबसे बड़ा देश बना हुआ है। मर्चेंडाइज व सेवा व्यापार में संतुलन लाना भारत व इसकी अर्थव्यवस्था के लिए प्राथमिकता होना चाहिए। यह लक्ष्य तभी हासिल होगा, जब हमारी अर्थव्यवस्था में उद्योग विशेषकर मैन्युपैâक्चरिंग क्षेत्र का योगदान ज्यादा होगा।
देखा जाए तो इन मामलों में अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों व उनकी शर्तों की भी बड़ी भूमिका है। मिसाल के तौर पर दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के व्यापारिक संगठन आरसेप में भारत ने अंत समय में भाग लेने से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि इससे भारत के पारंपरिक घरेलू सेक्टर में चीन के सस्ते उत्पादों के आवक की संभावना ज्यादा थी। भारत ने नई आर्थिक नीति के बाद तथा विश्व व्यापार संगठन की नई रिजीम में शामिल होने के बाद प्रतियोगिता व संरक्षण नीति में एक संतुलन लाने का प्रयास किया, पर वह भारत को व्यापार अतिरेक देश बनाने में कामयाब नहीं कर पाया। अभी भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार देश अमेरिका में नए ट्रंप रिजीम में टेरिफ बढ़ाने को लेकर जो बयान दिए जा रहे हैं, वह भारत के निर्यात बाजार के लिए नई चुनौती होंगे।
भारत सरकार ने इधर अंतरराष्ट्रीय व्यापार की मुख्य आधारभूत संरचना जिसमें जल व हवाई बंदरगाहों की स्थापना व आधुनिकीकरण तथा अंतर्देशीय कनेक्टिविटी को दुरूस्त करने के साथ राजकोषीय व वित्तीय प्रोत्साहन के कई कदमों की घोषणाएं जरूर की, पर सबसे अहम है दुनिया में कंट्री स्पेसिफिक व्यापार रणनीति बनाए जाने की।
इसके तहत भारत द्वारा दुनिया के बीस बड़े व्यापारिक साझेदार देशों में जहां इसके कुल निर्यात का ६० फीसदी हासिल होता है, वहां अपने स्थित वाणिज्यिक मिशन को एक रणनीतिक निर्देश दिया गया है। इसके तहत इन्हें बताया गया है कि वे वहां भारतीय निर्यात के हर संभावित अवसरों की पहचान करें और अपने प्रतियोगी व्यापारिक देशों से हरसंभव प्रतियोगिता करें। कुल मिलकर निर्यात भारतीय अर्थव्यवस्था की एक बड़ी दीर्घकालीन चुनौती है।