चंद सिक्कों के लिए
खुद को न वहां छोड़ आना
खुद को ज़रा समेटकर
अपना वजूद बचा लाना।
त्याग दो वो जहान
जहां न कद्र है कोई वहां।
नोचते जो दामन तेरा
भरने न दे जख्मों के निशान।
रिस – रिस लहू टपक रहा
सुनता वहां कहां कोई
तेरी दर्द भरी कराहट?
समेट ले खुद को चुपके से
बिन चाहत,बिन आहट।
तेरा वजूद मिटाकर शायद
अपना किरदार बनाएंगे
खुद से न तुम खुद मिट जाना
अपनी नजरों से न गिर जाना
खुद के हाथ न खुद कटवाना
अपाहिज बन मत बैठ जाना।
धन -.संपदा का क्या अभिमान?
ये तो आज इसकी, कल उसकी गुलाम
रिश्तों की आज है यही ढलान।
ठहर! सोच! सोच ज़रा
मत बन अंजान
ऐसे जहान में नहीं है काम।
बहुत हुआ अपना अपना
बस कर दे सबको राम – राम।
नैंसी कौर, दिल्ली