हिंसाग्रस्त मणिपुर के बारे में जो तत्काल फैसला भाजपा को दो साल पहले ही लेना चाहिए था, वह उन्होंने अब लिया है। मणिपुर के विवादास्पद और असफल मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने आखिरकार इतवार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। बीरेन सिंह के शासनकाल के अंतिम दो वर्षों के दौरान मणिपुर जातीय हिंसा की आग में झुलस गया था। लेकिन न तो बीरेन सिंह मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार थे और न ही उन पर भाजपा का दबाव था। अब देर-सवेर, भाजपा श्रेष्ठजनों को बीरेन सिंह को पद से हटाने की सुध आई। बेशक, इस बात पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि बीरेन सिंह को मणिपुर में सांप्रदायिक हिंसा को नियंत्रित करने में उनकी विफलता की सजा के रूप में भाजपा द्वारा पदच्युत कर दिया गया। यदि भाजपा श्रेष्ठजनों में इतनी संवेदनशीलता होती, तो वे बीरेन सिंह के नेतृत्व में मणिपुर को दो साल तक झुलसने नहीं देते। अब हालात ऐसे थे कि भाजपा के सामने कोई विकल्प नहीं था। भाजपा के सामने दो ही विकल्प थे या तो बीरेन का इस्तीफा लेकर जैसे-तैसे सत्ता बचा ली जाए या फिर मणिपुर में सत्ता खो दी जाए। यह तय है कि आज से शुरू हो रहे मणिपुर विधानसभा के सत्र में कांग्रेस पार्टी बीरेन सिंह सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाएगी। उसे
भाजपा के ही असंतुष्ट
और बीरेन सिंह से नाराज विधायकों को समर्थन मिलेगा ऐसी भी तस्वीर थी। विधायकों के इस गुट ने भाजपा के श्रेष्ठजनों को इसकी जानकारी दी। कॉनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी ने तो पहले ही सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। ऐसे में भाजपा ने बीरेन सिंह को समय रहते ही ‘नमस्ते’ कर सरकार बचाने का रास्ता चुना। इसीलिए विधानसभा सत्र से एक दिन पहले बीरेन सिंह के इस्तीफे का मुहूर्त तय किया गया, जिसके चलते सहज तौर पर विधानसभा का निर्धारित सत्र भी स्थगित हो गया और भाजपा को सरकार बचाने के लिए बीरेन का उत्तराधिकारी चुनने का मौका भी मिल गया। बीरेन सिंह शासन समाप्त होने से मणिपुर की आम जनता ने निश्चित ही राहत की सांस ली होगी। लेकिन ये राहत की सांस कब तक चलेगी, यह भी एक सवाल है। क्योंकि मणिपुर में जातीय दावानल कब बुझेगा? कुकी और मैतेई समुदायों के बीच दुश्मनी और आपसी अविश्वास वैâसे खत्म होगा? अपने राजनीतिक फायदे के लिए भाजपा द्वारा लगाई आग से झुलसी जिंदगी कब सामान्य होगी? क्या नए मुख्यमंत्री इस चुनौती का सामना कर पाएंगे? क्या मणिपुर में राजनीतिक स्थिरता आएगी? ऐसे कई सवाल बीरेन सिंह के शासनकाल में उठे और उनके
इस्तीफे के बाद भी अनुत्तरित
हैं। अगर दो साल पहले जब मणिपुर जातीय संघर्ष में जलने लगा, तभी भाजपा ने मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का इस्तीफा ले लिया होता तो ‘अशांत मणिपुर’ की चुनौती खड़ी ही नहीं होती। अगर मैरी कॉम जैसी ओलिंपिक खिलाड़ी की मर्मांतक पुकार ‘मेरे मणिपुर को बचाओ’ दिल्ली के हुक्मरानों के कानों तक पहुंची होती तो मणिपुर जातीय हिंसा की चपेट में आकर बर्बाद नहीं होता। इस दावानल में ‘राजनीतिक रोटी सेंकने’ की कोशिश में अब भाजपा भी झुलस गई है। कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव को भाजपा विधायकों का भी समर्थन मिलने के डर से भाजपा को मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का इस्तीफा स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है यह मणिपुर में भाजपा की भूलों का प्रायश्चित नहीं है। मुख्यमंत्री पद से बीरेन सिंह का इस्तीफा मणिपुर की राख पर पानी डालने का नाटक करने जैसा है, जिसे भाजपा ने जातीय हिंसा की आग में भस्म कर दिया था। इससे कुछ हद तक आग बुझ गई है ऐसा तो हो जाएगा, लेकिन दिलों में नफरत की आग कब शांत होगी? क्या प्रधानमंत्री सोचेंगे कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से मणिपुर के लोगों से मिलना चाहिए और राहत देनी चाहिए? वैâसे भरेंगे सामाजिक जीवन पर लगे घाव? क्या भाजपा ईमानदारी से इन घावों को भरना चाहती है? बीरेन सिंह के पद छोड़ने के बावजूद असंख्य सवाल बरकरार हैं।