मोबाइल की दुनिया में खोए,
बच्चे, युवा सब हैं रोए।
कभी हंसी थी जहां गूंजती,
अब गुस्से की लपटें हैं बोए।
खेल नहीं, ये जाल बना है,
मन-मस्तिष्क पर काल बना है।
चिड़चिड़ापन, क्रोध उमड़ता,
जीवन में अंधकार घना है।
माता-पिता भी असहाय हैं,
बच्चे भी अब पास नहीं हैं।
स्क्रीन की दुनिया में उलझे,
अपनों से कटे, उदास पड़े हैं।
क्या ये खेल, खेल ही है?
या मन को छलने की रेल?
सिर्फ गोली, वार, हमला,
बना दिया जीवन को जेल।
कहते हैं, जब दुख घनेरा छाता है,
जगह बदल कर नया सवेरा आता है।
बीमारी में जीवन शैली बदलो,
तो तन स्वस्थ मस्त बन जाता है।
फिर क्यों न बदलें गेम भी अपना?
नई दिशा में कदम बढ़ाएं।
जहां सृजन हो, ज्ञान भी हो,
मन को सुखी बनाने आएं।
सरकारें भी नजर दौड़ाएं,
निर्माताओं पर डाले जोर।
कुछ खेल सिखाएं ध्यान, योग,
मन-मस्तिष्क को दें नया सौर।
रचनात्मकता, संगीत, कला,
खेलें ऐसे, बनें भला।
मौत, हिंसा, नफरत छोड़ो,
खेलों में अब बदलाव करो।
अब वक्त है चेतने का,
मन को नई राह देने का।
चलो मिलकर आवाज उठाएं,
“गेम में बदलाव” करवाएं!
-रत्नेश कुमार पांडेय
मुंबई