मुख्यपृष्ठनए समाचाररोखठोक :  ...और सपना बिखर गया!

रोखठोक :  …और सपना बिखर गया!

संजय राऊत- कार्यकारी संपादक

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार का मतलब एक स्वप्न की मौत है। आदर्शवाद, नैतिकता, भ्रष्टाचारमुक्त शासन का सपना लेकर केजरीवाल और उनके लोग पहले सड़कों पर और फिर राजनीति में आए। उनका सपना भी आखिरकार भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण धूमिल हो गया और अब भाजपा ने उस सपने को तोड़ दिया है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
– पाश
दिल्ली में जब आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की हार हुई तब एक बड़े वर्ग का सपना मर गया। केजरीवाल और उनके लोग स्वच्छ, ईमानदार राजनीति का सपना लेकर आए थे। उन्होंने देश की राजधानी में कुल दस वर्ष शासन किया। जनता ने उन्हें भारी समर्थन दिया और अब भ्रष्टाचार, अराजकता और धोखाधड़ी के आरोपों के घेरे में फंसकर वही केजरीवाल हार गए। उसी दिल्लीवासी जनता ने उन्हें हरा दिया। सबके सपने मानो चकनाचूर हो गए। केजरीवाल द्वारा देश को दिखाए गए सपनों की इस तरह मौत होना देश को गंवारा नहीं। वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन का चेहरा बन गए थे। राजनीति में ‘आदर्श’, ‘साधनशुचिता’ इन शब्दों को पुनर्जीवित करने वाले केजरीवाल एंड कंपनी की दिल्ली में हुई दारुण पराजय से न सिर्फ केजरीवाल को झटका लगा है, बल्कि देश द्वारा देखे गए आदर्शवाद का सपना भी मानो चकनाचूर हो गया है। जिस दिल्ली ने केजरीवाल एंड कंपनी को सिर पर बिठाया, उसी दिल्ली ने केजरीवाल को फेंक दिया। इसे क्या कहा जाए?

वनवास खत्म हुआ
करीब २७ वर्ष का राजनीतिक वनवास पूरा करने के बाद भाजपा दिल्ली की सत्ता में लौट आई है। हरियाणा और महाराष्ट्र में जीत के बाद दिल्ली में मिली जीत देश के कमजोर हो रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ठीक नहीं है। दिल्ली में एकतरफा जीत से लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ गया है। साथ ही, लोकसभा में मोदी के मनमाने शासन को चुनौती देनेवाले इंडिया गठबंधन पर भी इससे प्रश्नचिह्न लग गया है। यह बिखराव भाजपा के फायदे के लिए है और भविष्य में देश को इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। भाजपा और ‘आप’ की जीत-हार में दो फीसदी का अंतर है, जबकि कांग्रेस को सात फीसदी वोट मिले। अगर दोनों साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो भाजपा को रोका जा सकता था। हरियाणा और दिल्ली में ‘आप’ के साथ समझौता न करने का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ा जाता है, यह उतना सच नहीं है। अजय माकन कहते हैं, ‘‘हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने पहल की और ‘आप’ के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बातचीत शुरू की। हम उन्हें चार सीटें दे रहे थे। उन्होंने छह सीटें मांगीं। सवाल चार या छह सीटों का नहीं था। वह मसला बातचीत से ही हल हो जाता, लेकिन इसी बीच केजरीवाल जमानत पर रिहा हो गए। वे जेल से बाहर आ गए और अगले ही दिन उन्होंने घोषणा कर दी कि हम हरियाणा की सभी ९० सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। तब इसकी शुरुआत राहुल गांधी ने नहीं की। इसकी शुरुआत केजरीवाल ने हरियाणा चुनाव से की। यह सही नहीं था। लोकसभा में हम एक साथ थे, लेकिन जैसे ही लोकसभा चुनाव खत्म हुए, गोपाल राय ने सबसे पहले यह घोषणा की कि अब कांग्रेस से हमारा गठबंधन टूट गया है। दिल्ली विधानसभा की ७० सीटों पर हम अकेले लड़ेंगे। इसके बाद ‘आप’ का हर नेता यही बोलने लगा। आप कांग्रेस को दोष क्यों देते हैं? कांग्रेस बातचीत को तैयार थी। हरियाणा में भी और दिल्ली में भी।’’
अजय माकन का कहना अगर सच है तो पूरी तरह से कांग्रेस को दोषी ठहराने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र में सीटों के आवंटन में कांग्रेस द्वारा आखिरी मिनट तक भ्रमित रहना समझ से परे था, यह भी उतना ही सच है।
लेकिन दिल्ली और हरियाणा को लेकर स्वयं अरविंद केजरीवाल ने जो जानकारी दी है वो कांग्रेस की गठबंधन संबंधित नीतियों को एक्सपोज करती है। श्री. आदित्य ठाकरे के साथ फिरोजशाह रोड स्थित आवास पर केजरीवाल की मुलाकात हुई।
‘‘अगर कांग्रेस के साथ गठबंधन हुआ होता तो बेहतर होता। केजरीवाल ने गठबंधन होने नहीं दिया, ऐसा आक्षेप है।’’
‘‘नहीं, मैं पूरी तरह से कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के पक्ष में था।” केजरीवाल।
‘‘तब क्या हो गया?’’
‘‘जब मैं जेल में था तब हरियाणा में चुनाव हुए थे। राघव चड्ढा हरियाणा का काम देख रहे थे। वे मुझसे जेल में मिलने आए थे। मैंने उनसे कहा, हमें कांग्रेस के साथ गठबंधन करना ही होगा। आप सीटों का बंटवारा तय करें।’’ केजरीवाल।
‘‘तब गाड़ी कहां अटक गई?’’
‘‘कांग्रेस ने हमसे एक सूची मांगी। हमने १४ निर्वाचन क्षेत्रों की सूची दी। राहुल गांधी ने कहा, हम ‘आप’ को छह सीटें देंगे। मैंने राघव से कहा, कोई बात नहीं, छह सीटें ले लो। हम दो कदम पीछे आ गए। गांधी ने कहा, के. सी. वेणुगोपाल से मिलें। वह फाइनल करेंगे। राघव ने के. सी. वेणुगोपाल से मुलाकात की। उन्होंने कहा, छह सीटें संभव नहीं हैं। हम चार सीट देंगे। आप हमारे हरियाणा प्रभारी बावरिया से मिलें। चड्ढा मुझसे जेल में मिलने आए। मैंने कहा, ठीक है। चार सीटें ले लो। चड्ढा बावरिया से मिलने गए तब उन्होंने चार का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। वे बोले, हम आपको दो ही सीटें देंगे। मैंने फिर चड्ढा को संदेश भेजा। ठीक है। दो सीटें ले लो। राहुल गांधी बॉस हैं और उनके वचन देने के बावजूद हमें छह सीटें नहीं मिलीं। चार से दो पर आ गए। उन दो सीटों के लिए चड्ढा ने आखिरकार भूपेंद्र हुड्डा से मुलाकात की। फिर उन्होंने भाजपा के गढ़ वाले इलाके में हमें दो सीटें ऑफर कीं। यह कांग्रेस की ‘गठबंधन’ धर्म की व्याख्या है। हम क्या करेंगे? ऐसा हुआ हरियाणा में। दिल्ली में भी कुछ अलग नहीं हुआ। वे भाजपा को हराना नहीं चाहते थे। वे मोदी विरोधी केजरीवाल को हराना चाहते थे। ये सब कहते वक्त केजरीवाल की व्यथा उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी। महाराष्ट्र ने भी इसका अनुभव किया है।

ईवीएम घोटाला नहीं
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद ‘ईवीएम’ घोटाले का मुद्दा सामने आया। दिल्ली में भाजपा की जीत के बाद किसी ने भी ईवीएम को दोष नहीं दिया, यह दिल्ली चुनाव का महत्वपूर्ण मुद्दा है। पिछले दस वर्षों में ‘आप’ ने अपने कार्यकर्ताओं का जाल बूथ की गहराई तक मजबूती से बुना है, लेकिन ‘आप’ के पास कोई विचारधारा और प्रवाह नहीं था। भ्रष्टाचार विरोधी किए गए आंदोलन के एकमात्र मुद्दे पर ‘आप’ खड़ी थी और जब उसी भ्रष्टाचार और बेईमानी का कीचड़ भाजपा ने ‘आप’ पर उछाला तब रह क्या गया? भाजपा के पास जो चुनाव प्रबंधन अर्थात व्यवस्थापन है, वही चुनाव व्यवस्थापन ‘आप’ के पास है। फिर भी हरियाणा, गोवा, गुजरात में उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। दिल्ली के केंद्रशासित प्रदेश के अलावा उनकी दौड़-भाग कहीं नहीं है। इसमें पंजाब राज्य एक अपवाद रहा। भाजपा ने बड़ी मेहनत से दिल्ली में अपना २७ साल का वनवास खत्म किया। मजबूत बूथ प्रबंधन और आक्रामक प्रचार से भाजपा ने दिल्ली में ‘वापसी’ की। भाजपा ने वोटर लिस्ट पर मजबूती से काम किया। ये मजबूत काम यानी ‘गड़बड़’ है, ऐसा ‘आप’ ने आरोप लगाया है। दो साल तक भाजपा के लोग सिर्फ मतदाता सूची पर ही काम करते रहे। मतदाता सूची से नाम बदलने का आरोप दोनों पक्षों ने लगाया। बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं को वोटर लिस्ट में घुसाने का आरोप भाजपा लगाती रही। दोनों तरफ से वोटर लिस्ट में ‘फर्जी’ वोटरों के नाम डालने की शिकायतें आती रहीं। महाराष्ट्र में ३९ लाख वोटों की गड़बड़ी हुई। हरियाणा में छह लाख वोट ब़ढ़ गए। यही ‘पैटर्न’ भाजपा ने कानून और नियम के दायरे में रहकर दिल्ली में लागू किया। मतदाता सूची पुनरीक्षण अभियान के दौरान भाजपा ने ३,०८,९४२ नए मतदाता जोड़े और १,४१,६१३ मतदाताओं को ‘फर्जी’ बताकर सूची से बाहर कर दिया। यही आंकड़ा निर्णायक साबित हुआ और दिल्ली में भाजपा की जीत हुई। ईवीएम के कारण जीते और हारे, यह मुद्दा ही कहीं नहीं उठा। भाजपा ने दो साल पहले ही तय कर लिया था कि केजरीवाल को बाहर करना है और उन्होंने बाहर कर दिया।

कांग्रेस ने क्या किया?
कांग्रेस के कारण ‘आप’ उम्मीदवारों की १४ सीटों पर हार हुई। इसमें अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया भी शामिल हैं। कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई, लेकिन उसने केजरीवाल को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका निभाई। हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली की जीत से मोदी और उनकी जनता का मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ा। मोदी लोकसभा में २४० सीटों पर रुक गए, जिसके बाद ‘इंडिया’ गठबंधन भी रुक गया। इसीलिए मोदी ‘३४०’ के जोश में काम कर रहे हैं। केजरीवाल, ममता बनर्जी ने स्वतंत्र मार्ग का पुनरुच्चार किया है। इंडिया गठबंधन के घटक दलों के बीच बातचीत खत्म हो गई है और कांग्रेस नेतृत्व नई बातचीत के मूड में नहीं है। महाराष्ट्र में ईवीएम से ज्यादा अहंकार और ‘सिर्फ हम’ वाले रवैये की वजह से हार हुई। अब दिल्ली में भी यही हुआ। केजरीवाल की हार के लिए जितनी कांग्रेस जिम्मेदार है, उतना ही केजरीवाल खुद भी जिम्मेदार हैं। उनके मन में भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी, लेकिन उन्होंने जिस रास्ते से शुरुआत की थी, उसी को बदलकर वे आगे बढ़ गए। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी लड़ाई देश की राजधानी में लड़ी और अण्णा हजारे उस लड़ाई के प्रतीक थे। दुनिया ने उनकी बात मानी, लेकिन केजरीवाल की हार से सबसे ज्यादा खुशी अण्णा हजारे को हुई। केजरीवाल अपने रास्ते से भटक गए, ऐसा अन्ना ने भी कहा। ईमानदारी की लड़ाई इस कारण दिल्ली की सीमा ही पर थम गई। इसमें ईवीएम की कोई भूमिका नहीं है।
एक आदर्श राजनीति का सपना लेकर केजरीवाल राजनीति में आए थे। लोगों ने भी यही सपना देखा। उन सपनों की हार दिल्ली में हुई। इससे तानाशाही की ताकत बढ़ेगी। तानाशाही की ताकत भ्रष्टाचारियों के साथ है। अब वैसा ही होगा।

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