आशा के पल

आशाएं थीं अदाएं थीं सादगी भी थी
साथ रुठी हुई परछाईं थी
चुपी छाई थी खामोश निगाहों में
मुकद्दर की सोई हुई तन्हाई थी
सब खो गया धीरे-धीरे हर जगह हर पल
कैसी किस्मत पाई थी
दिल बना भरा समुद्र
आंखों की पलकों में ऐसी गहराई थी
वो नादानियां वो सहेलियां
अब बन गई हैं पहेलियां
याद है जब रंगीन हवा हमारे संघ लहराई थी
वो घड़ियां लौट के आती
हमें भी चैन की सांस दिलाती
बीते लम्हों ने ऐसी आस जगाई है
खुशी का नजारा होता
चमकता तारा होता वो दिन हमारा होता
क्यूं हमारी जिंदगी ठुकराई है
बेरंगी मौसम की करवट
आलम की बेरुखी यह दौर कुछ हरजाई है
बरस बीत गए असमय को समय पर भारी पड़ते
अब इसने अपनी खैर नहीं मनाई है
हर हद से गुजर गए कितने पड़ाव पार किए
न थमे न झुके जिंदगी अब तो कहीं ठहराई है।
-अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

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