डॉ. ममता शशि झा मुंबई
कल्पना चाय के कप आ समाचार पत्र हाथ में लइत सोचइ छलि जे जहिना चाय पीब लगबइ आ पेपर पढ़ लगबइ पतिदेव सुंदर जी के कोनो ने कोनो काज मोन पड़ि जेतनि आ ने त कोनो फरमाइश शुरू भे जेतनि। आ ठीके जहिना बैस लगली सुंदर जी सोर पाड़ लगलखिन, ‘हे हमरा जलखइ द दिय, भूख लागल अछि।’
कल्पना, ‘दही चूड़ा ले के खा लिय राखि देने छी।’
हम बुझिते छलियइ कि जहिना हम चाय पीब लगबइ आ पेपर पढ़ लगबइ अहाँ के देखल नहिं जायत, कोनो ने कोनो काज मोन पड़ी जेबे करत।’
सुंदर जी चुटकी लइत बजला, ‘हाँ, पूरा दुनिया अहीं के चलाब के अछि त अहाँ समाचार पत्र नहिं पढ़बइ त दुनिया ठीक सँ कोना चलतइ!!’
कल्पना, ‘भने अहाँ भोरे-भोर ऑफिस चलि जाय छलहूँ हमहूँ चैन भ जाय छलहूँ।’
सुंदर जी भनसाघर दिस चलि गेला आ कल्पना समाचार पत्र हाथ में लेलइथ चाय के कप दिस ध्यान गेलनि त चाय सेरा गेल छलनि, गेलि भनसाघर में चाय गरम कर लेल त मोन आरो खौंझा गेलनि, देखलइथ जे सुंदर जी चूड़ा लेब काल में सौंसे चूड़ा छिड़िया देने छलखिन, दही के मटकुरी के छपने नहिं छलखिन आ चिन्नी बला डिब्बा के ढक्कन अधखुले छोड़ि देने छलखिन, जा धरि चाह गरम भेलनि ततबे काल में इ सबटा के समेट आ सरिया लेलथि, बुझइ छलि जे हिनका बजा क देखाब सँ कुनु फायदा नहिं होयत। चाय के कप लेलथि आ फेर सँ आंगन में आबि क बैस गेलि, सुंदर जी सेहो ओहि ठाम आबिद क बैस गेला। कल्पना के पेपर में पहिले समाचार पर ध्यान गेलनि त मूँह के भाव बदलइत गेलनि आ अवाक भ गेल छलि, हुनकर चेहरा के भाव देखि के सुंदर जी पुछलखिन, ‘एतेक अवाक भे के की पढ़ी रहल छी, एकटा साड़ी खरीदला पर चारि टा प्रâी भेट रहल छइ कि सोना के भाव देख लेलियइया!!’ कल्पना तमसाईत बजलि, ‘अहाँ सब ते स्त्रीगण के कपड़ा आ गहना सँ कखनो ऊपर आबहे नहिं देब चाहइ छियइ।’
सुंदर जी, ‘त बाजू ने की भेल, की पढ़ी के चेहरा अवाक अछी।’
कल्पना, ‘कि बाजू एतेक दिन त ईहे सुनई, देखइ छलियइ जे संतान माय-बाप के देखभाल नहिं करइ छइ वृद्धाश्रम में ध अबइ छइ, संपत्ति ले लइ छइ लोक-लज्जा के डर सँ आपस में जिम्मेदारी बाँटि लइ छइ मुदा इ पहिले बेर पढ़ी क इ बुझ रहल छी जे एहन संतान होए छइ जे अपन प्रसिद्धि आ पाय के लेल माय-बाप के सम्मान के सेहो बेच लेल तैयार भ गेल छइ!!’ सुंदर जी उत्सुकता वश ओहि समाचार के पढ़ लगला, हुनको भाव पत्नी के भाव सन भ गेलनि!!