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ऋतुचक्र : फगुवा

सुरेश मिश्र

फागुन मा जिया कुलबुलाए पिया
भला जोही हम कबले डगरिया
शीत ऋतु बीत गई। विरहिन राह जोहती रही, मगर प्रियतम नहीं आए। परदेसी ने फोन पर बताया कि होली पर जरूर आऊंगा, मगर राह जोहते-जोहते थक गई। प्रियतम नहीं आए। सखियां सब अपने प्रियतम के साथ होली खेल रही हैं। वो तड़फड़ा रही हैं। उसने फोन पर कहा-
फागुन मा जिया कुलबुलाए पिया
भला जोही हम कबले डगरिया।
जड़वा बितल जबसे लागल फगुनवां,
देहिया टुटइ, घर मा लागे न मनवां,
काटेला हमके बखरिया, पिया
भला जोही हम कबले डगरिया।
गउवां मा सखियन क गन्ना पेराए,
हम का करी कुछ समझ में न आए,
हमरा क लागेला डरिया पिया,
भला जोही हम कबले डगरिया।
जनती जउ सइयां जी जइहैं सहरिया,
हमरा से प्यारी होइ जाए नौकरिया,
अगिया लगउती डिगरिया, पिया,
भला जोही हम कबले डगरिया।
लागल बसंत, मदन ऋतु आइल बा,
बुढ़वा-जवनवां पे मस्ती भी छाइल बा,
तड़पत बा तोहरी गुजरिया पिया,
भला जोही हम कबले डगरिया।
जिनगी परल बा करइ के कमइया,
गउवां बुलावत बा ननदी के भइया,
आपन करा खेती-बरिया पिया,
भला जोही हम कबले डगरिया।
केकरा बताई हम दिल कइ कहानियां,
भिड़िया में भी लागे हमके बिरनियां,
अइसइ बिते का उमरिया पिया,
भला जोही हम कबले डगरिया।

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