पंकज तिवारी
शुकुल मास्साहब और सनेही तड़के ही घर छोड़कर मार्ग पर थे। बगीचे, बंसवारी, मेंड़-डांड़ से होते हुए चिड़ियों के कलरव के बीच से आगे बढ़ते चले जा रहे थे और बतियाते भी। साइकिल से खर्र… खर्र… खट्ट… खर्र की आवाज दूर तक जा रही थी। सुनसान जगह पर आराम से बैठा शेरू जो मंगरू का बड़ा वफादार था, भी अब चौकन्ना हो उठा था और कान फड़फड़ाना शुरू कर चुका था। बैलगाड़ी में नधे दोनों बैल अपनी धुन में मगन घंटी की आवाज के अनुसार भागे जा रहे थे जिस पर लकड़ी का पहाड़ लदा हुआ था। ऊबड़-खाबड़ सड़क कहीं-कहीं भीठा का रूप ले रही थी, ऊंचाई इतनी कि बैलगाड़ी चढ़ा पाना टेढ़ी खीर हो जाए। एक गांव बहुत पीछे छूट चुका था, जबकि दूसरा आगे आ रहा था। हरे-भरे खेत-खलिहान के उस पार एक तालाब भी था, जिसका जल बहुत ही स्वच्छ था। किनारे-किनारे सुंदर तरीके से सजे वृक्षों का खजाना था, जहां रंग-बिरंगे फल-फूल देखने को मिल जाते थे। बिल्कुल दूर से आते दो साइकिलों को देखकर, कांधे पर लाठी और लाठी के दोनों छोर पर क्रमश: हाथ धरे गंवही धुन में गीत गाते जुमई चचा जो अब तक मगन थे, अब निगाह इधर ही लगा लिए थे, कान के छिद्र को भी बड़ा कर लेना चाहते थे, ताकि पता लगाया जा सके कि आखिर हैं कौन ई लोग। तब गांव में साइकिल का आना मतलब बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता था गांव वालों के लिए कि फलाने गांव में आज एटलस साइकिल आई थी। दो-चार दिनों तक चर्चा होती थी साइकिल और साइकिल वाले की। पूरी मंडली के साथ चचा सेंवारे में भैंस चराने आए थे कि कान लगा लिए थे और उड़ते-उड़ते शादी की कुछ बातें कान तक पहुंच गई थीं। बस फिर क्या था मंडली में से सबसे तेज दौड़ने वाले ललई को तालों के बीचों-बीच दौड़ा दिया गया था गांव के लिए। ‘हे चचा, हे चचा… बाबू हयऽ हो… फलाने, मिसिर भैया… नोखई… रमई भैया… देखुआर आइ हयेन हो गांउ में, गांउ वालेउ सज्ज होइ जात्जा…।’ ललई के इस खबर को सुनते ही गांव वाले जैसे दौड़ पड़े थे। सभी अपने-अपने बच्चों को नहलाने और तैयार होने के लिए भेजने लगे थे। गांव भर में शादी के योग्य लड़के अब हसीन सपनों में विचरण करने लगे थे। कोई खुद को राजकुमार तो कोई सबसे श्रेष्ठ मानने लगा था। साइकिल अब घूमते हुए गांव बड़ेरी जिला भुलेस्सर पहुंच चुकी थी। पलक बिछाए इंतजार होता था उस समय अगुवा का। खैर, समय अभी भी बहुत ज्यादा नहीं बदला है, इंतजार अब भी होता है, बल्कि अब तो और होता है। लोग खटिया, मचिया सजाने लगे थे। देखुआर पता नहीं किस दुआर बैठ जाए। सभी अपने-अपने लाल को भर निगाह देखने लगे थे। कोई बच्चे को कठबइठी सिखाने लगा था, तो कोई ननियाउर के नेवासा वाला बात नहीं बताने के लिए समझा रहा था, तो कोई गोत्र और पीढ़ियों को याद कराने में लग गया था। खरौंचा लिए लोग दुआर की सफाई में भी जुट गए थे। शुकुल मास्साहब भी कुछ कम नहीं थे, जहां पूरी तैयारी देखते समझ जाते कि ये घर शादी के योग्य नहीं है, कारण यहां के लोग गर्जुआए हुए हैं। मतलब लड़के की शादी बहुत समय से नहीं हो रही है। या तो लोग आ ही नहीं रहे होंगे या आकर चले जा रहे होंगे। ‘बात कुछ तो जरूर है’ शुकुल आगे निकल गए। गांव के लोग निराश-हताश बस देखते रहे। खुशी जो पांव से लेकर सिर तक पैâल गई थी अब और भी ऊपर हवा में हेरा गई थी। हंसते चेहरे मायूसी में बदल गए थे। देखुआर को आगे बढ़ते देख लोग रास्ते में टोकना भी चाहे थे कि क्या पता बात बन जाए पर शुकुल के आगे किसी की एक न चलीऽ। शुकुल जैसे किसी को पहचान ही नहीं रहे थे। उधर अगले गांव पुरहिता में सुबह-सुबह ही मनेसर भैंस-गाय के लिए कोयेर-कांटा करके खाली हुए थे और अब भूसा लेने पाही पर चले गए थे। बड़का खांचा मूड़े पर लादे फगुनहट वाला गीत गाते मदमस्त चाल में चले आ रहे थे। मेड़ एकदम पतली थी। एक-दो बार तो गिरते-गिरते भी बचे थे। क्रमश:
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि,
चित्रकार, कला समीक्षक हैं)