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रोखठोक : दिल्ली में साहित्य सम्मेलन का सियासी कुंभ … मराठी को क्या मिला?

संजय राऊत -कार्यकारी संपादक

दिल्ली में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन चल रहा है। देश की राजधानी में यह सम्मेलन होना खुशी की ही बात है, लेकिन गैर-साहित्यिक उपस्थिति, राजनेताओं का सम्मान और साहित्य से परे जैसी बातों से यह सम्मेलन एक चर्चा का विषय बन गया है। पिछले पांच वर्षों में मुंबई-महाराष्ट्र को जिन्होंने कमजोर किया, ऐसे सभी लोग साहित्य सम्मेलन के मंच और मंडप में हैं।

साहित्य सम्मेलन अब नित्य की बात हो गई है। मराठी साहित्यकार एवं कलाकार कोई भूमिका तक नहीं निभाते और सरकार से जुड़े रहने में ही वे खुद को धन्य मानते हैं। सवाल चाहे महाराष्ट्र की अस्मिता का हो या देश की प्रतिष्ठा का, महाराष्ट्र के साहित्यकार और कलाकार कोई पहल भी नहीं करते हैं। ऐसे ही सभी लोगों का एक अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन दिल्ली में हो रहा है और इसका उद्घाटन हमारे प्रधानमंत्री श्री. नरेंद्र मोदी ने २१ तारीख को किया। साहित्य सम्मेलन जैसे आयोजनों का राजनीतिक इस्तेमाल किस तरह किया जाता है, यह दिल्ली के सम्मेलन में फिर दिखाई दिया। साहित्येतर कार्यों से यह सम्मेलन गुलजार है। यह सम्मेलन २१, २२, २३ फरवरी को दिल्ली के ताल कटोरा मैदान में शुरू है। उस साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन प्रधानमंत्री ने विज्ञान भवन में किया। ताल कटोरा में उनकी सुरक्षा का सवाल था। इसलिए उद्घाटन की जगह ही बदल दी गई। हमारे प्रधानमंत्री को महाराष्ट्र के लेखकों, कवियों, पुस्तक विक्रेताओं, श्रोताओं से क्या खतरा है? दिल्ली की विधानसभा में जीत के बाद प्रधानमंत्री भाजपा मुख्यालय गए। वहां भारी भीड़ में जीत का जश्न मनाया गया। इसकी अपेक्षा साहित्यिक सम्मेलन की भीड़ को अधिक अनुशासित मानना ​​चाहिए। प्रे. ट्रंप का स्वागत करने के लिए मोदी अहमदाबाद के वल्लभभाई पटेल स्टेडियम गए। वहां तो लाखों की भीड़ थी, लेकिन मोदी ताल कटोरा मैदान में प्रत्यक्ष हो रहे साहित्य सम्मेलन से बचते हुए विज्ञान भवन चले गए। अब इसकी आलोचना करने का कोई मतलब नहीं है।
नेताओं की भीड़
दिल्ली के साहित्य सम्मेलन में राजनेता बिरादरी की भीड़ ही ज्यादा दिखाई दी। दिल्ली के भाजपा के मंत्री और सांसद इसमें सबसे आगे हैं जैसे कि यह उनके घर का ही काम हो। दिल्ली के सम्मेलन में पहले कोई आने को तैयार नहीं था। भाजपा के सम्मेलन पर आक्रमण के आगे क्या अपनी दाल गल पाएगी? ये सवाल सभी के मन में था। क्योंकि सम्मेलन पर कब्जा करने का प्रयास पहले दिन से शुरू हो गया था। भाजपा की वजह से ही ये सम्मेलन दिल्ली में हो रहा है, ऐसा प्रचार अभी भी जारी है। फिर भी लोग अपने मराठी प्रेम के कारण दिल्ली के सम्मेलन में पहुंचे। फिर भी साहित्यकार, पूर्व अध्यक्ष, साहित्यिक संस्थाओं के बड़े पैमाने पर दिल्ली आने की तस्वीर नजर नहीं आई। उद्घाटन समारोह में सम्मेलन के निवर्तमान अध्यक्ष रवींद्र शोभने नहीं थे। क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उनका नाम काट दिया, लेकिन मंच पर मौजूद नेताओं ने ऐसा नहीं किया। सम्मेलन साहित्यकारों का है और उन्हें ही काट दिया जाए। उद्घाटनकर्ता प्रधानमंत्री मोदी और स्वागताध्यक्ष श्री. शरद पवार के होने से राजनीतिक संतुलन तो कम से कम बन गया। शरद पवार तो कम से कम साहित्यकारों, कलाकारों से संबंध रखते हैं, लिखते हैं और पढ़ते हैं। यशवंतराव चव्हाण के समय से यह परंपरा रही है, लेकिन आपातकाल के दौरान, राजनेता सम्मेलन में नहीं आएं और सम्मेलन को खराब न करें, ऐसी भूमिका अपनानेवालों में दुर्गाबाई भागवत आगे रहीं और उन्होंने एक समानांतर साहित्य सम्मेलन आयोजित किया। तब दुर्गाबाई के समर्थन में तब के जनसंघ के लोग अधिक थे, लेकिन अब उन्होंने दिल्ली के सम्मेलन को ही हाईजैक कर लिया। बेशक, राजनेताओं की मदद और सत्ताधारियोेंं की फंडिंग के बिना हमारे साहित्य उत्सव नहीं होते। इसलिए साहित्यकारों के मंच पर राजनेताओं की मौजूदगी ज्यादा दिखती है। जो इस बार दिल्ली में ज्यादा देखा गया। ‘‘साहित्य सम्मेलन के मुख्य पंडाल में नाथूराम गोडसे का नाम लें’’ ऐसी मांग कुछ लोगों ने की और इसके लिए आयोजकों पर दबाव डाला। एक भी लेखक ने इस पर निर्भय और खुला रुख नहीं अपनाया। आमंत्रण से लेकर अंत तक दिल्ली के सम्मेलन में असमंजस की तस्वीर बनी रही। मराठी साहित्य महामंडल और पुणे की ‘सरहद’ संस्था ये आयोजक इस गड़बड़ी का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ रहे हैं। दिल्ली में मराठी साहित्य सम्मेलन के मंच पर राजनीतिक ‘गेट-टू-गेदर’ करने में ही उनकी ज्यादा दिलचस्पी दिखाई दी। क्योंकि उपराष्ट्रपति से लेकर कई लोगों ने दिल्ली में मराठी साहित्य महामंडल और सम्मेलन के अध्यक्ष को चाय-पान के लिए बुलाकर सम्मान किया, उसी में सभी खुश हैं। साहित्य सम्मेलन के मंच का खुलेआम राजनीतिक इस्तेमाल हुआ। क्या साहित्य सभा में भीड़ होगी? ऐसा मैंने आयोजक संजय नाहर से पूछा। विज्ञान भवन लबालब हो जाएगा और ताल कटोरा मैदान भी भर जाएगा, इतने लोग तो निश्चित ही आएंगे, ऐसा उन्होंने बताया। दिल्ली में पांच हजार से अधिक छात्र केंद्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और वे सभी सम्मेलन के कार्यों में सक्रिय सहभागी हैं। नाहर ने सम्मेलन को सफल बनाने के लिए कड़ी मेहनत की, लेकिन सम्मेलन से पहले उन्होंने एकनाथ शिंदे को महादजी शिंदे के नाम पर पुरस्कार देने की गड़बड़ी करके लोगों की नाराजगी ले ली। साहित्य सम्मेलन के बैनर तले महादजी के नाम पर शिंदे को पुरस्कार दिया, इसे लेकर मराठी साहित्य महामंडल अंधकार में था। महादजी का पुरस्कार सरहद संस्था का निजी पुरस्कार है। ऐसे में वह किसे देना है, यह उनका मसला है, लेकिन एकनाथ शिंदे की उपलब्धि क्या है? यह सवाल महादजी के नाम पर पुरस्कार देने वालों के मन में नहीं आया। महादजी शिंदे दिल्ली के आगे झुकनेवाले नहीं, बल्कि दिल्ली क तख्त काबिज करने वाले एक मराठा योद्धा थे। पानीपत के युद्ध में भी महादजी ने अपना शौर्य दिखाया। महादजी ने दो बार दिल्ली जीता। लाल किले को घेर लिया। दिल्ली के बादशाह को भागने पर मजबूर किया। शिंदे-होलकर की शर्तों-नियमों पर दिल्ली का बादशाह तब शासन करता था। यह इतिहास देखें तो एकनाथ शिंदे इस पुरस्कार की प्रतिष्ठा और ढांचे में कहीं भी फिट नहीं बैठते। ऐसे में दिल्ली के आगे लगातार झुकनेवालों को और उसे ‘विद्रोह’ या ‘बगावत’ कहनेवालों को ऐसे पुरस्कार देना ये साहित्य सम्मेलन में उनकी घुसपैठ है। किसी भी साहित्यकार ने इसकी निंदा नहीं की, लेकिन जहां सम्मेलन ही राजनेताओं और सत्ताधारियों के हाथों चला गया तो वहां दोष किसको दें!
श्रोता भी घट गए
मराठी साहित्य सम्मेलन में श्रोता और पुस्तक बिक्री की आय दोनों हासिल करना मुश्किल हो गया है। डॉ. तारा भवालकर दिल्ली साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षा बनीं, ये अच्छा ही है। ‘‘साहित्यकारों पर भय का साया नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र के दो पहलू होते हैं। सुनना और सुनाना,’’ ऐसे विचार डॉक्टर तारा भवालकर ने प्रस्तुत किए, लेकिन आज डर का साया किस पर नहीं है? यह सवाल है और सरकार से समझौता कर कृपादान पानेवालों की कतार में कलाकार और लेखक सबसे आगे हैं। ऐसा नहीं होता तो साहित्य सम्मेलन के मंच पर एकनाथ शिंदे को पुरस्कार देकर सम्मानित नहीं किया गया होता। इस सम्मेलन की खास बात यह है कि नए संसद से यानी लोकतंत्र के मंदिर से ग्रंथयात्रा निकली। जिस मंदिर से यह यात्रा निकली, वो मंदिर आज लोकतंत्र की कालकोठरी बन गया है और इस वजह से पूरा देश घुटन महसूस कर रहा है। लेखक, कवि, कलाकार, व्यंग्यचित्रकार, स्टैंड-अप कॉमेडियन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और सरकार के खिलाफ बोलने की आजादी नहीं है। ऐसा बोलनेवालों और लिखनेवालों को सीधे जेल भेज दिया जाता है। रशिया में पहले स्टालिन और अब पुतिन के नेतृत्व में ठीक यही हो रहा है।
मराठी की दुर्दशा
मराठी भाषा के विश्व और अखिल भारतीय सम्मेलन होते हैं, लेकिन आज महाराष्ट्र, मुंबई में मराठी की क्या स्थिति है? प्राइमरी स्कूलों से मराठी भाषा को हटा दिया गया है। ऐसे में महानगरपालिका के स्कूल ही बंद हो गए हैं। मराठी साहित्य मंडल का कार्य महाविद्यालयों से प्रारंभ हुआ। जो ठंडा हो गया है। मराठी पुस्तकालय बंद हो रहे हैं। मुंबई जैसी राजधानी में मराठी लोगों का सांस लेना मुश्किल हो गया है। मराठी होने के कारण उन्हें मुंबई में ही घर नहीं दिया जा रहा है। महाराष्ट्र के अधिकांश उद्योग सीधे दूसरे राज्यों में ले जाए गए और जिन्होंने यह पाप किया, वे सभी राजनेता दिल्ली में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के सम्माननीय अतिथि हैं। मराठी भाषा को अभिजात भाषा का दर्जा दिया गया, ये अच्छा ही हुआ। यह भाषा छत्रपति शिवराय की भी थी, लेकिन मराठी भाषा में मर्दानगी की जीभ ही मानो काट दी गई है। इस वजह से महाराष्ट्र का स्पष्ट बोलना खत्म हो गया है। बेलगांव का मराठी मानुष ७० साल से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। अब यही लड़ाई महाराष्ट्र में भी शुरू है। मराठी लोगों और महाराष्ट्र को कमजोर करने की हर साजिश मराठी शासकों की मदद से ही चल रही है। दिल्ली का मराठी साहित्य सम्मेलन इस वजह से अब केवल एक दिखावा ही है। राजनीति चलती रहेगी, लेकिन मराठी भाषा और संस्कृति बची रहनी चाहिए। ज्ञानेश्वर ने कहा है कि मराठी भाषा समुद्र जितनी गहरी है। इसके लिए मराठी भाषा की गहराई में उतरना होगा।
शरीर पर पानी की छींटें न पड़ें इसलिए किनारे पर खड़े रहनेवाले मराठी साहित्यकार और कलाकार जब तक हैं, तब तक मराठी भाषा की गंगा प्रयागराज की गंगा जितनी ही मैली हो जाएगी। साहित्य सम्मेलन का राष्ट्रीय महाकुंभ आएगा और जाएगा।
जिनके हाथ में कलम है, जब वो अपनी भूमिका निभाएंगे तभी महाराष्ट्र का मराठीपन बचेगा।

 

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