समय का फेरा

ढल जाती है जिंदगी
सुखों की छाया नहीं पड़ती
दुःख का भय काट जाता
मस्तिष्क को हिला जाता
वक्त का बेरहम साया बिन बुलाए चला आता
जाने का तो पता न बताता
आने का समय बता जाता
किसी की खबर लेता किसी को तड़पा जाता
धीरज रख कर बैठे
और कितना धीर धरे
समय की टेढ़ी बेकाबू चाल को
कैसे काबू में करें
वक़्त का पन्ना काला और सफेद है
उसके अंदर ईमान और फरेब है
झूठ पे दुनिया टिकी हुई है
हार जीत का गम नहीं है
स्वतंत्र हैं या गुलाम हैं इसका भी नहीं ख्याल है
राहों में फूल है या शूल है इसका भी नहीं मलाल है
कदम रखते जरा फूंक-फूंक के
मुकाम मिलने में अभी जरा खेद है
सृष्टि का यही सबसे बड़ा भेद है।
-अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

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