मां कोई साधारण शब्द नहीं है, बल्कि मां समर्पण का प्रतीक हैं, मां दया-करुणा से विभूषित होती है, मां जीवन का आधार होती है, मां के बिना जीवन का अस्तित्व संभव ही नहीं है। मां सदैव अपने बच्चों का निःस्वार्थ भाव से पालन-पोषण करती है। मां अपने बच्चे के लिए अपने शरीर की सुंदरता एवं ताकत का त्याग कर देती है। अपने खून के रक्त से अपने बच्चे को सींचती है और दुनिया का सबसे भयावह दर्द (प्रसव पीड़ा) को सहन करते हुए अपने बच्चे को इस दुनिया में लाती है। यह कहा जा सकता है कि मां अतुलनीय है। मां प्रथम शिक्षिका होने के साथ-साथ ममता की सागर है। मां की ममता को मापना जैसे समंदर में तिनका फेंककर उसको खोजने के समान है। मां कई रूपों में हमारे में विद्यमान होती है, चाहे वह प्रकृति के रूप में हो जो हमें स्थान, भोज्य पदार्थ, हवा, जल देती है। प्रकृति रूप के अलावा मां आध्यात्मिक रूप में मां दुर्गा, आदि शक्ति जगत जननी के रूप में हमारे जीवन में शांति प्रदान करती हैं। आध्यात्मिक रूप के अलावा भी जन्म देने वाली मां साथ ही साथ पालन-पोषण करने वाली (बहन, पत्नी, दादी या अन्य रिश्ते) के रूप में साक्षात विद्यमान होती है। मां सदैव निःस्वार्थ दाता के रूप में होती है, जिसे अपने जीवन में अपने बच्चों से प्यार के अलावा कुछ नहीं चाहिए होता है। अपने बच्चों को खुशी में खुश और दुःख में दुखी हो जाती है। मां का मोह अपने बच्चों के अलावा किसी भी सांसारिक सुख को प्राप्ति में नही होता है। अब प्रश्न यह उठता है कि मां के कई रूप में कौन सा रूप सर्वोत्तम होता है ? इसका जवाब तो देना मुश्किल है, क्योंकि मां अतुलनीय होती है, लेकिन तब भी इसका उत्तर यह हो सकता है कि यदि मां का कोई भी रूप अपनी विशेषता को पूर्ण रूप से पूरा कर रहा है। चाहे मां आपको जन्म दी हैं या नहीं दी है, लेकिन अगर आपसे प्यार-लगाव और समर्पण की भावना है तो निःसंदेह मां का रूप सर्वोत्तम है। मां आपके पास अलग अलग रूपों में उपस्थित होती है। मां आपके पास जिस रूप में उपस्थित है, चाहे वह प्रकृति के रूप में हो , चाहे वह जन्मदात्री मां के रूप में हो, चाहे वह पालन-पोषण करने वाली रूप में हो, चाहे आध्यात्मिक रूप से मां दुर्गा के रूप में हो, आपको मां के हर विद्यमान स्वरूप की सेवा, सम्मान, आदर, समर्पण की भावना रखनी चाहिए। इसी संदर्भ में एक मनुस्मृति से लिया गया श्लोक चर्चित है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।( मनुस्मृति ३/५६ ।।
–गौरव दुबे, जौनपुर