कविता की कोंपल अंखुआती है ,
भावों के जल से सींच-सींच ।
मन के जंगल में भावों के पाखी,
रखने पड़ते हैं भींच-भींच।
जब हो जाते हैं आदृ नयन,
तब बहती है ये कविता।
ये तरल तुम्हारे शब्दों का,
ज्यों बहती हो सुर सरिता।
ओस से भीगे दूर्वा दल में
टप से ज्यूं झरता है।
भीगे मन में चुपके से,
कविता का फल गिरता है ll
-डॉ. कनक लता तिवारी