सामना सवांददाता / कल्याण
कल्याण के कांबागांव में आदिवासियों की 464 एकड़ जमीन पर भू-माफियाओं की नजर लग गई है। अब इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। आखिर गरीब आदिवासियों की जमीन पर भू-माफियाओं का कब्जा जमाना तो एक परंपरा बन चुकी है। इस बार भी भू-माफियाओं ने फर्जी किसान प्रमाण पत्र का सहारा लेकर आदिवासियों को उनकी ही जमीन से बेदखल करने की ठान ली है।
परहित चेरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष विशालकुमार गुप्ता ने बताया कि कल्याण के तहसीलदार सचिन शेजल के ‘ऐतिहासिक’ फैसले के कारण सैकड़ों आदिवासी बेघर होने की कगार पर हैं। बाहर से आए कुछ ‘होशियार’ भू-माफिया ने फर्जी किसान प्रमाणपत्र बनवाकर कब्जे की तैयारी पूरी कर ली है। अब प्रशासन का क्या कहना– वो तो आंखें मूंदे बैठा है। उल्टा भू-माफियाओं के पक्ष में फैसले देकर अपनी भूमिका निभा रहा है। कुछ जमीनों पर तो कब्जा भी कर लिया गया है, लेकिन प्रशासन की ‘मजबूरी’ देखिए कि उसे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा।
1932 से रह रहे आदिवासी – लेकिन अब क्या फर्क पड़ता है!
कांबा गांव के आदिवासी 1932 से वहां रह रहे हैं। कई पीढ़ियों से बसे-बसाए इन आदिवासियों को अब बताया जा रहा है कि उनकी जमीन उनकी नहीं है। आखिर भू-माफियाओं के पास फर्जी किसान प्रमाण पत्र है, जो शायद किसी ‘अदृश्य शक्ति’ ने तैयार करवा दिया होगा। अब प्रशासन की दलील यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया है। यानी मामला खत्म! अगर आदिवासी बेघर हो भी जाएं तो क्या फर्क पड़ता है–भू-माफिया को कब्जा तो मिल ही जाएगा।
तहसीलदार का ‘बयान’
तहसीलदार सचिन शेजल ने इस मामले में बड़ी सफाई से कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है। अगर किसी को आपत्ति है तो फिर से याचिका दायर करे। अब किसान प्रमाण पत्र असली है या नकली, इसकी जांच कौन करे? तहसीलदार साहब को इससे क्या मतलब–उनका काम तो फैसला देना है, चाहे भू-माफिया का पक्ष मजबूत ही क्यों न हो जाए।
आदिवासियों का सवाल–हमारी जमीन हमें ही क्यों छोड़नी पड़े?
आदिवासी लहु आल्या मांगे ने गुस्से में कहा कि तहसीलदार साहब को अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इतना ही याद है तो आदिवासियों को भी वह दिखा दें। आखिर आदिवासियों को उनकी ही जमीन से हटाने की इतनी जल्दी क्यों है? क्या महाराष्ट्र में आदिवासियों के पास जीने का हक नहीं है? जब तीन लोगों का समझौता हो सकता है तो बाकी का क्यों नहीं हो रहा?
इस पूरे मामले में भू-माफियाओं की ‘कला’ और प्रशासन की ‘मूक सहमति’ ने मिलकर आदिवासियों को एक बार फिर बेघर होने के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब देखना यह है कि अगला फैसला किसके पक्ष में आएगा – भू-माफिया के या उन गरीब आदिवासियों के, जिन्होंने दशकों से अपनी जमीन को संभालकर रखा है।