पर्दा

कुछ दृश्य कुछ अदृश्य भी
मंच का लटका पर्दा
गिरता है उठता है
तालियों, सीटियों के साथ।
एक पर्दा घूंघट का
अब लगभग पुराना हो गया
कमरे, घरों के हों या होटलों के
मिलते हैं लटकते पर्दे अब भी।
चरित्र का पर्दा फाड़ दिया
नजर का पर्दा गिरा दिया
शर्म का पर्दा उतर गया
समाज का पर्दा धो दिया
सम्मान का पर्दा भुला दिया
सुंदर मुख पर केशों का पर्दा
पोनी टेल निगल गया
बेईमानी का पर्दा
नोटों का बंडल पी गया
पर्दे का पर्दा बेपर्दगी ने ढक लिया
आइने पर पड़ी दरार से
अक्सर दो बन जाते हैं
टूटे एक हिस्से पर
पर्दा डाल दिया तो
आइना एक ही दिखता है।
-बेला विरदी

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