मुख्यपृष्ठस्तंभनमो…नवो…या नउोकार?”...बोलते-बोलते भटका जैन समाज !

नमो…नवो…या नउोकार?”…बोलते-बोलते भटका जैन समाज !

संवाद-भरतकुमार सोलंकी

कभी सोचा है कि णमोकार मंत्र कब और कैसे नवकार बन गया? नहीं ना? चलिए, आज थोड़ा गंभीर सवालों को हल्के-फुल्के अंदाज में छेड़ते हैं…और शायद कहीं हम खुद को भी पकड़ लें!
तो भाई साहब, ये ‘णमोकार’ को ‘नवकार’ बना देने का आइडिया आया कहां से? क्या किसी मुनि महाराज ने कोई ‘शब्द संक्षेप योजना’ घोषित कर दी थी? या फिर कोई बोला, ‘बोलते-बोलते जीभ थक जाती है, नवकार बोलो, आसान है!’
क्या ‘णमोकार’ कोई सरकारी फॉर्म है, जो छोटा करके ‘नवकार’ बना दिया गया? या फिर जैन समाज ने सोचा-बोलने में कंजूसी करो, कम शब्द बोलो, पुण्य बचाओ! देखिए साहब, देशी बोली में हम शब्दों को कैसे-कैसे तोड़ते-मरोड़ते हैं, उसका कोई जवाब नहीं! सादड़ी को हादड़ी, सिवाना को हिवाना, अहमदाबाद को एमदावाद और सूरत को हुरत बना ही देते हैं। लेकिन क्या इन तोड़-मरोड़ शब्दों को आप पासपोर्ट में लिखते हैं? क्या `हुरत’ से इंटरनेशनल फ्लाइट पकड़ी जा सकती हैं?
अब सोचिए-`णमोकार’ जैसे शाश्वत मंत्र को, जो आत्मशुद्धि का आधार हैं, उसे सिर्फ बोलचाल की सुविधा के लिए `नवकार’ कर देना…ये तो वही बात हुई, जैसे किसी का नाम शिवशंकर हो और हम उसे प्यार से `शँकरुआ’ कहें-फिर सरकार से निवेदन करें कि आधार कार्ड में भी यही लिख दें!
तो क्या जैन धर्म भी अब लोकल बोली के हवाले हो गया है ?
क्या `ध्यान-भक्ति’ के स्थान पर अब `धंधा-प्रसार’ हो गया है?
शब्दों के बीच का `ण’ गायब, भावनाओं का `नमन’ भी गायब!
और फिर पूछिएगा-`धर्म में पहले जैसी पवित्रता क्यों नहीं रही?’
मंत्र कोई मिठाई नहीं है कि स्वाद के हिसाब से नाम बदल दो।
यह कोई व्यापारी बोर्ड नहीं कि ग्राहक को देखकर नाम सजा दो।
आज अगर हम णमोकार को नवकार बना देंगे,
तो कल को क्या तप को टिप बना देंगे?
मोक्ष को मैक्स कर देंगे?
या फिर तीर्थंकर को टीथी अंकल बना देंगे?
तो बात सीधी है, शब्दों में अपभ्रंश तब तक ठीक है, जब तक वो बोलचाल का हिस्सा है- लेकिन जब बात होती है धर्म-परंपरा की और वैश्विक पहचान की, तब शब्दों की शुद्धता ही उसकी आत्मा होती है।
आइए, सवाल उठाएं—
•क्या हम भावों को सरल करने की आड़ में अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं?
•क्या किसी अपभ्रंश उच्चारण को `धार्मिक नामकरण’ का दर्जा देना ठीक है?
•क्या आने वाली पीढ़ी को हम मूल मंत्र का अपभ्रंश संस्करण ही सौंपना चाहते हैं?
तो आज का संवाद यहीं समाप्त नहीं होता—
क्योंकि प्रश्न अब भी खड़ा है-`ये नवकार… नमोकार से कब और कैसे बना?’
और जब तक इसका उत्तर शास्त्र से नहीं, शब्दों की सुविधा से मिलेगा-
तब तक णमोकार नहीं, सिर्फ़ `कन्फ्यूजनकार’ मंत्र चलता रहेगा!

अन्य समाचार