तबाही का मंजर

कुछ भी मुमकिन है आज के जमाने में
तू जीत का लुत्फ उठा हार जाने में ।
तलाक ही लेना है गर निकाह के बाद
ऐसा भी क्या मजा है ब्याह रचाने में ।
धोखे में न रहना उसने हथियार डाल दिए
अदब है, तहजीब है यूं भी सर नवाने में ।
खफा होकर डहा दिया दिल तूने खामखां
अब सदियां लगेंगी हुजूर उसे मनानें में।
तैश में फूंक दिया दंगाइयों न ठिकाना उसका
जिंदगियां कम पड़ जाएंगी आशियाना बनाने में।
जागा तो है वो रत भर “तबाही के मंजर में”
कौन साथ देगा उसका, सुबह ‘शव’ उठाने में।
ख्वाब बिखरे, अरमां कुचले, मजहब की जंग में।
अब क्या रखा है ‘त्रिलोचन’ अश्क बहाने में।
-त्रिलोचन सिंह अरोरा

अन्य समाचार

परछाइयां

शिकवे

चोरी

हे री सखी

एहसास