हुस्न वाले

जब भी सजता है, इश्क का बाजार
हुस्न वाले महफिल, लूट लेते हैं
करके अपने कातिलाना, नजरों से वार
हुस्न वाले महफिल लूट लेते हैं
दिखा के अपनी, जादुई अदाएं
वो बड़े मासूम बनते हैं, जैसे कुछ नहीं समझते हैं
फैला के अपनी महक का सबाब
हुस्न वाले महफिल, लूट लेते हैं
मय में भी, वो मय नहीं
जो मय, इस इश्क में हैं
छलका के अपने, मय का प्याला
हुस्न वाले महफिल लूट लेते हैं
कत्ल खाने और कहीं नहीं
वो इन्हीं महफिलों में हैं
चला के दिल पे, वाण
ये हृदय छील, देते हैं
फैला के, मासूमियत का, जाल
हुस्न वाले महफिल लूट लेते हैं
हुस्न वाले महफिल लूट लेते हैं।
-वंदना मौर्या, इंदौर

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