मुख्यपृष्ठखबरेंभक्तिहीन मनुष्य ठीक उसी प्रकार है जैसे बिना जल के बादल-श्री हरि...

भक्तिहीन मनुष्य ठीक उसी प्रकार है जैसे बिना जल के बादल-श्री हरि चैतन्य महाप्रभु

सामना संवाददाता / मुंबई 

प्रेमावतार, युगदृष्टा, श्री हरिकृपा पीठाधीश्वर व विश्व विख्यात संत स्वामी श्री हरि चैतन्य पुरी जी महाराज ने आज यहां उपस्थित विशाल भक्त समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि आपकी कोई भी क्रिया, चेष्टा, व्यवहार या कर्म ऐसा न हो जाए, जिसे देखकर कोई उंगली उठाए। आपके जीवन में वांछित परिवर्तन भी आना चाहिए। अपनी गलतियों और बुराइयों को समझें व दूर करें। दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण से कहीं बेहतर है कि स्वयं आत्म अन्वेषण करें। कई बार हम स्वयं गलतियां करते हैं, स्वयं अपने हाथों अपने लिए पतन का गड्ढा खोदते हैं व दोष दूसरों को देते हैं। दूसरों में दोष ढूंढने के कारण हमें अपने अंदर दोष होते हुए भी दिखाई नहीं देते। आंखें सबको देखती हैं, पर अपने को नहीं देख पाती। निष्पक्ष, शांत, एकाग्रचित्त होकर अपनी आत्मा की आवाज सुनें, तो पता चल जाएगा कि लोग हमें क्या समझते हैं, हमारा मन क्या समझता है, परंतु वास्तव में हम हैं क्या ?
किसी को दोष क्यों देते हो, अपनी अनेक आंतरिक दुर्बलताएं ही विनाश का कारण बनती हैं। उन्होंने कहा कि मनुष्य को अपने जीवन को श्रेष्ठ व मर्यादित बनाने के लिए जहां से अच्छाई मिले, वहां से ग्रहण करके अपने जीवन को समाज के लिए कल्याणकारी, श्रेष्ठ व मर्यादित बनाएं। संसार में किसी को भी, कभी भी, किसी प्रकार से भी दुख, भय या कलेश नहीं पहुंचाना चाहिए तथा न ही पहुंचाने की प्रेरणा या इच्छा करनी चाहिए। सदैव सत्य स्वरूप परमात्मा की ही शरण लेनी चाहिए। हमें प्रभु का कृपा पात्र बनने की कोशिश करनी चाहिए, दया पात्र नहीं। प्रेम पूर्वक की गई भक्ति से परमात्मा प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों पर कृपा करते हैं।
उन्होंने कहा कि आत्मा व परमात्मा एक ही हैं, मगर फिर भी अलग हैं। परमात्मा सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है और आत्मा उसके एक अंश में, परमात्मा का आत्मा के बिना अस्तित्व है, मगर आत्मा का परमात्मा के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। परमात्मा का इस सृष्टि में सबसे एक ही नाता है और वो है भक्ति का। उसके यहां ऊंच-नीच, जाति-पाति आदि का कोई भेद नहीं है। परमात्मा के लिए तो एक मात्र प्रेमपूर्ण भक्ति ही सर्वस्व है। भक्तिहीन मनुष्य ठीक उसी प्रकार है, जैसे बिना जल के बादल। वह चाहे कितना ही उज्जवल क्यों न हो, मगर किसी के काम के नहीं होते। भक्तिहीन जीवन कितनी ही विशेषताओं से पूर्ण होने पर भी बेकार है। भक्तिमय मनुष्य परमात्मा को अत्यंत प्रिय होते हैं और वही विशेष कृपा के अधिकारी होते हैं।
महाराज श्री ने भागवत शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि ‘भा’ यानी भाव सृजन करने वाली, ‘ग’ यानी गर्व को नष्ट करने वाली, ‘व’ यानी वर्ण व वर्ग भेद को समाप्त करने वाली। ‘त’ यानी तपस्चर्या परिपूर्ण जीवन जीने का संदेश देने वाली। ग्रहस्थ को ही तपोवन बना लें। जंगलों, गुफाओं या हिमालय में तप हेतु जाने की आवश्यकता नहीं है। गंगा व यमुना की तरह पवित्र भाव से आपस में मिले, जीवन में एक लक्ष्य हो, लक्ष्य की ओर निरंतर प्रयास हो। मनोबल, आत्मबल व आत्मविश्वास बरकरार रखें। परमात्मा का स्मरण करते हुए बाधा, कठिनाईयों, परीक्षाओं से यदि न घबराते हुए निरंतर चले तो सफलता अवश्य ही कदम चूमेगी व ऐसा मिलाप होने पर गंगा व यमुना की तरह एक बार मिलने के बाद कभी संबंध टूटने की कगार पर नहीं आएंगे। श्री राम भरत के मिलाप का उदाहरण देते हुए कहा कि भरत ने स्वयं को राम के रंग में पूरी तरह रंग लिया तो 14 वर्ष की तन की दूरी भी दिल से दूर नहीं कर पाई।
उन्होंने कहा कि मानव जीवन की ही महिमा है कि वह अपने लिए समाज के लिए व परमात्मा के लिए उपयोगी हो सकता है । त्यागपूर्वक शांत होकर अपने लिए, उदारता पूर्वक सेवा करके समाज के लिए व आत्मीयता पूर्वक प्रेम करके परमात्मा के लिए उपयोगी होता है ।शांत उदार व प्रेमी भक़्त हो जाना यह मानव जीवन की महिमा है। जो शांत होगा वह उदार तथा ज़ो उदार होगा वह भक्त होगा।ऐसा जीवन ही पूर्ण जीवन है व ब्रह्मा का साक्षात्कार भी यही है ।त्याग संसार का नहीं अपितु ममता ,अहंकार ,अधिकार ,लोलुपता आसक्ति आदि का करना है ।परमात्मा अप्राप्त नहीं, नित्य प्राप्त है। मात्र प्राप्ति की स्मृति व जागृति के लिए निरन्तर सत्संग के प्रकाश में जीना है।महाराज श्री ने कहा कि सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो, जीवन में सफलता मिलेगी।
महाराज श्री के दर्शनार्थ व दिव्य प्रवचनों को सुनने के लिंए स्थानीय, क्षेत्रिय व दूर दराज़ से काफ़ी संख्या में भक्त जन पहुँचे ।अपने धाराप्रवाह प्रवचनों से उन्होंने सभी भक्तों को मंत्रमुग्ध व भाव विभोर कर दिया ।सारा वातावरण भक्तिमय हो उठा व” श्रीगुरु महाराज”, “कामां के कन्हैया” व  “लाठी वाले भैया “की जय जयकार से गूंज उठा ।

अन्य समाचार

परछाइयां

शिकवे